Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतषिणी ० ० ६ प्रोपदीपर्चा
२९७ वस्त्राणि परिधाय ' जिणपरिमाण अचणं करेड ' जिनप्रतिमाना, कामदेव प्रतिमानामर्चन करोति विवाहविधि निर्विघ्न सपनार्य मिति भावः 'करिता' कृत्वा 'जेणेव अतेहरे देणेव उवागाछ?' यौवा.तापुर तत्रैवो- पागच्छति ।।सू०२१।।
द्रौपदीचर्चा यत्तु-" जिणपटिमाण अणं करेइ , इति पाठ समाश्रित्य भगवतोऽहंतः पूजन जैनधर्मानुयायिभि' पर्त यमित्याहस्तमिल्यात्वविलसितम् , अस्य पाठस्य चरितानुवादस्पत्वेन विधायकत्वासम्भवात् । विधियाक्य हि जिनाज्ञाया वोधक स्वेन विधायकं भवति, यथा-भगमता विधेयतयोपदिष्ट पदविधावश्यक चतुर्विधजिन प्रतिमा का कामदेव की प्रतिमा का निर्विन विवाह कार्य के लिये अर्चन करती है अर्चन कर के फिर वह (जेणेव अते उरे तेणेव उवागच्छड ) जहाँ अत पुर था वहा चली गई ॥ सू० २१ ॥
द्रौपदी चर्चा जो "जिणपडिमाण अवर्ण करे।" इस पाठका आश्रय लेकर प्रतिमापूजन की उपयोगिता कहते हए यह कहते हैं, कि " अर्हत भगवान की प्रतिमा की पूजा जैनधर्म के पाल को को करना चाहिये" यह उनका कथन मिथ्यात्व का विलास ही है। क्यो कि यह " जिनपरिमाण "' इत्यादि वाक्य चरित का ही अनुवादक है-अतः ऐसे वाग्य विसी मुरय अर्थ के विधायक नहीं आ करते हैं। चारितानुवाद से तो मिर्फ जिस व्यक्ति ने जो २ आचरण किया है उसका ही बोध होता है। शास्त्र विहित मार्गके निर्देशक विधिवाक्य हुआ करते हैं क्यों कि कि ऐसे वाक्य जिन भगवान की आज्ञाके विधायक होते हैं। जिस प्रकार पर પ્રતિમાનુ કામદેવની પ્રતિમાનું નિવિને વિવાહનાર્ય સંપન્ન થવાના હેતુથી मर्थन ४३ छ, भयंन ान ( जेणे अतेउरे तेणेव उवागच्छद ) જ્યાં રણવાસ છે તે તરફ જતી રહી છે સૂત્ર ર૧
पही या Zeal "जिणपहिमाण अचण करेइ" मा पाउना माधारे प्रतिमा पूरा નની ઉપયોગિતા સિદ્ધ કરતા આ પ્રમાણે કહે છે કે “અહંત ભગવાનની પ્રતિમાનું પૂજન જૈનધર્મ પાલન કરનારાઓએ કરવું જોઈએ” તેમનું આ કથન સત્યથી બહુ દૂર છે એટલે કે આ વાત સાવ અસત્યથી પૂર્ણ છે કેમકે मा "निनपहिमाण" वगैरे पाय यतिना अनुमा छे भेटमा भारी એવા વચને કઈ વિશેષ અથ ને સ્પષ્ટ કરનારા હોતા નથી ચરિતાનુવાદથી તે ફક્ત જે માગે છે તે આચરણ કર્યું છે, ફક્ત તેનુ જ જ્ઞાન થાય તેમ છે શાસ્ત્રવિહિત માર્ગને બતાવનારા તે વિધિ વાક જ થાય છે જેવી રીતે