Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
या दिशा विदिश का मति मे पोतवहनम् नौकायान 'मारिए ' अपहतम् महा पातेन नीतम् : इनि । इति सत्याप्रतिमनमि निधाय परतमनः सरन्यो यावर यायति मार्ग यान करोति । तत ग्पन्लु ते सिधारा-मार्थती नौका चालमाः पर्णधाराम-नागि' । 'गनिलगाय' गार्भयका नीमध्ये यथाव सर कर्मफराः, सयात्रानी का गणिनामाण्डपतयथ यम निर्यापरन्नौका धिपतिस्तोवोपागन्छन्ति, उपागत्य परम गादिपु:-कि पलु यूय हे देशानुभिया' अपहतमन सकल्पाः निरत्माहमनसा यारत् 'मियायह ध्यायथ आतध्यान कुरुथ, भारार्थे पहुवचनम् । तत खलु म निर्यामरस्तान पहन कुक्षिधाराश्च ४ फयर देम वा दिम पा चिदिस वा पोयबरणे अवहित त्ति कटु) अतः जप उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं रहा कि यर महावीत मेरी नौका को किस दिशा अपमा चिदिशा की ओर ले गया है-तय इस प्रकार मन में विचार कर के यह (ओहयमगसरुप्पे जार मियायह) अपरत मन. सकल्पवाला पनकर यारत् आतध्यान करने लगा। (तण्ण त पहवे कुचिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य सजत्ता जावो वाणि यगा य जेणेव से णिज्जाम तेणेच उवागच्छद) इतने में अनेक कुक्षि धर-पार्श्व में बैठकर नौका चलाने वाले कर्णधार-नाविक, गार्मेयक-नौका के भीतर ययावसर काम करने वाले और सांयात्रिक पोत वणिक जहा वह निर्यात्रिक या-वहा आये। ( उवांगचित्ता एव वयासी-किन्न तुम देवाणुपिया ओयमणसमप्पी जाय झियायह-तरण से णिज्जामए गयो (ण जाणाइ कयर देस वा दिस वा विदिस वा पोयवहणे अवहिएति क१) એથી જ્યારે તેને આ વાતની પણ ખબર રહી નહિ કે આ મહાવાત અમારી નૌકાને કઈ દિશા અથવા તે વિદિશા તરફ લઈ ગયું છે ત્યારે મનમાં આ जतन वियर शन ते (ओइयमणस कप्पे जाव झियायइ) अपडतमन સ કલપવાળો થઈને યાવત આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યા
(तरण ते वहवे कुन्छिधारा य कण्णधारा य गम्भिल्लगा य सजत्ता णावा वाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेग उवागच्छद) એટલા મા ઘણુ કુક્ષિધર--
પામાં બેસીને નૌકા ચલાવનારા, કર્ણધાર નાવિક, ગાર્મેયક-નોકામા યથા સમયે કામ કરનારા અને સાયાત્રિકપાત વણિકો જ્યા તે નિર્ધામક હતો ત્યા ગયા
(उवागच्छित्ता एव वयासी-किन्न तुम देवाणुपिया ओइयमणसकप्पा जाव झियायह-तएण से णिज्जामए ते वहवे कुच्छिमारा य ४ एव वयासी