Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तामण्यास आरोग या पत्र पाडास्तगोपाग जति, उपागग पनाना पाडवानां द्रौपदी देशी 'माहत्यि ' महम्नेन. उपनयनि ददानि । तत' सजग प्रष्णाः पत्रमि' पाण्डने गार्धमात्मा पहभीरपल गगमुद्रम्य म यम येन यौा जम्बूद्वीपो द्वीपः, योर भारत वर्ष और पापाग्य गमाग गतु मटतः ॥ मु०२९॥ पच पढये तेणे उपागम, उपागमत्ता पनाह पडवाण दोरइ देविं माधि उणेह ) तप ऋणासुदेव ने पदमनाभ से इस प्रकार कहा अरे ओ पदमनाभ ! तुम हम तर से अकाल में ही मरण के अभिलाषी क्यों यने ५क्यातुझे यह पना नरी था कि द्रौपदी मेरी परिन है। क्यों त इम को यहां ले आया गर-जप त हम रूप में मेरी शरण मे आचुका हे-तो अप तुझे किसी भी प्रकार का मेरी तरफ से भय नही रहा-ऐसा फरकर कृष्णासुदेव ने उसे विसर्जित कर दिया-अपने स्थान पर उसे जाने की आज्ञा देदी-| याद में द्रौपदी को माथ में लिया और लेकर वे रथ पर आम्द हुए। आरुट होकर फिर वे, पर्श आये-जहा पाचों पांडव थे वहा आकर उन्हों ने द्रौपदी को अपने शयों से पांचो पाडवों के सुपुर्द कर दिया। (तपण कण्हे पचेहिं पटवेहि सद्धि अप्पच्छे छह रहेहिं लवणसमुह मज्झ मझेण जेणेय जबद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इसके बाद चेमणवासुदेव पाँची के साथ आत्मपष्ट रोकर उहो रथों को ले लवण समुद्र से बीचों
५ पडवे तेणेव उवागच्छद उपागन्छित्ता पचण्ह पडवाण दोवइ
મદેવે પદ્મનાભને આ પ્રમાણે કહ્યું કે અરે એI પદ્મનાભ! મયમા જ મરણ અભિલાષી કેમ બની ગયા છે?, શુ કે દ્રોપદી મારી બહેન છે તું એને અહીં શા માટે લઈ રે આ સ્થિતિમાં મારી પાસે આવ્યો છે તે હવે તારે
જાતને ભય રાખવો જોઈએ નહિ. આમ કહીને કૃષ્ણ ને ત્યારપછી દ્રૌપદીને સાથે લઈને તેઓ રથ ઉપર તેઓ જ્યા પાચે ૫ડ હતા ત્યાં આવ્યા ત્યાં ની દ્રૌપદીને પાચે પાડાને સોપી દીધી
“सद्धि अप्प छ? छहि रहेहि लवणसार जेणेव भारहेवासे तेणेव पहारेत्य गमणाए) - પાડની સાથે આત થઈને છે