Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तापकणार द्रौपया देन्या मार्गणगरेपणं 'पारितामति । नन' गट रा कष्णों वासु देवः कुन्ती ' पिउन्धि' पिपगारमेयमार्गन-पान : पिठयम । यदि द्रौपचा देव्या कुत्रापि श्रुति माविमति पाया मे, 'तीण' तार खल, अह पावाला मानाद ना आगरा समयान गमतान् सवतः स्थानाद्, द्रौपदी देशी 'साहयि' पस्तन अमि' उपनयामि, इति कुलाः इत्युक्त्या सुन्ती 'पिउस्थि' पिनमार मसारति समानयति, सहकार्य
इस लिये हे पुत्र ! में चारती है कि दोपदी की मार्गणा एव गवेषणा होनी चाहिये । (ताण से कण्हे वासुदेव कोनी पिउनिउ वयासोजणघर पिउच्छी दोवडा देवीग फत्पा सुइ वा जार मामितोण अह पायालाओ वा भवणाओ अदभरहाओवा. ममतओ दोवड साहोत्य उवणेमि त्ति कह कोंती पिच्छिमारेड मम्माणेह, जार पडिविस ज्जेइ, तपणं सा कोंती दवी कण्टेण वासुदेवणं परिधिसज्जियो, समा णी जामेव दिसि पाउ० तामेदिसि पटिगया) तर कृष्ण वासुदेव ने अपनी भुआ कुती देवी से इम प्रकार फरा-हे भुआ! में और अधिक तो क्या कह द्रौपदी देवी की यदि में कही पर भी श्रुतिक्षुति, आर प्रवृत्ति पा लेता है तो मैं चाहे वह पाताल में हो. या किसीके भवन : हो, या अर्ध भरत क्षेत्र में से कही पर भी क्यों न हो-उस द्रौपदी देवा को सब जगह से अपने हाथों से ला कर दूँगा। इस प्रकार कहकर उन कृष्ण चासुदेव ने अपनी पितावसा कृती देवी का सत्कार किया
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(तएण से कण्हे वासुदेवे कोत पिउच्छि एव क्यासी ज णर पिउछा दोबइए देवीए कथिइ सुइ वा जाव लभामि तो ॥ अह पायालाओ वा भवणासा अद्ध भरहाओ वा, समतओ दोवड साहथि उवणेमित्ति कद को ती पिता सकारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तरण सा को ती देवो कण्हेण वासुदेवण पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसि पडिगया)
ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના ફેઈ કતી દેવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હું ફાઈ ! હુ વધારે શું કહુ, દ્રૌપદી દેવીની જે હ કોઈ પણ સ્થાને શ્રુતિ શુ અને પ્રવૃત્તિ મેળવી લઈશ તે ભલે તે પાતાળમાં હોય, કોઈના ભવનમાં હોય કે અધ ભરત ક્ષેત્રમાં ગમે ત્યા કેમ ન હોય તે દ્રૌપદી દેવીને ગમે ત્યાથી હું લાવી આપને આપીશ તેમ છુ આ પ્રમાણે કહીને તે કષ્ણ વાસુદેવે પોતાના ઈ પિતશ્વસ-કતીદેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યારે તે ન