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• दसवाँ अध्याय -
इस अध्याय में प्रतिमा का लक्षण प्रत्येक प्रतिमा का सविस्तार कथन है। व्रत की महिमा बताकर व्रत भंग का दुष्परिणाम दिखाकर भव्य जीवों को चारित्र शुद्धि के प्रति सतर्क, सावधान रहने का उपदेश दिया है।
व्रती श्रावक के जो ग्यारह दर्जे हैं उन्हें प्रतिमा कहते हैं। मूलगुण और उत्तर गुणों के समूह के अभ्यास से जो संयम के प्रति बढ़ता जाता है, महाव्रती का इच्छुक होता है ऐसा क्रमिक विकास पूर्वक साधक ११ प्रतिमा तक पहुंचता है । शीलवान् पवित्र आचरण वाला श्रावक भी इन्द्र आदि से आदरणीय और जगत के लिये उत्कृष्ट भूषण होता है। दूसरी ओर व्रत भंग भव-भद में दुःखदायी होता है। व्रत भंग के फल के प्रति इस प्रकार का उल्लेख मिलता भी है
गुरुन् प्रतिभुवः कृत्वा भवत्येकं धृतं व्रतम् ।
सहस्रकूट जैनेन्द्र सद्मभंगाद्य भागलम् ।। अर्थ - गुरू साक्षी में धारण किये गये व्रत को भंग करने से सहस्रकूट चैत्यालय को नष्ट करने प्रमाण पाप लगता है अतः आत्म हितेषी को निर्दोष व्रत पालन करना चाहिए । इत्यादि विषयों पर प्रकाश डालते हुए इस अध्याय में श्रावक धर्म का सामोपाङ्ग वर्णन किया गया है।
पाठकगण यदि इस ग्रन्थ का रूचि पूर्वक अध्ययन करेंगे, वाचन के साथ पाचन भी करेंगे तो निःसन्देह अल्प भव में सांसारिक दुःखों से छूटकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे। प्रत्येक छन्द जीवन को सुसंस्कृत करने के लिए श्रेष्ठ सामग्री प्रदान करता है। उन गुरूदेव के प्रति हम कोटीशः नमस्कार करते हैं जिन्होंने भोले-भाले अज्ञानी जीवों के उपकारार्थ ऐसा सुगम श्रेष्ठ मनोज्ञ ग्रन्थ रचा है। कोटिशः नमन।
गुरवः पान्तु नो नित्यं ज्ञानदर्शन नायकाः । चारित्रार्णव गम्भीरा: मोक्षमार्गोपदेशकाः ।।
आर्यिका १०५ विमलप्रभा संघस्था - पूज्य प्रथम गणिनी आर्यिका विजयामति माताजी
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