________________
सत्पुरुष को विद्या प्रेम को ज्योत्सना द्वारा विश्व को सुखी जाती है।
गौरवर्ण उन्नत भाल तेजस्वी ललाट चन्द्र के समान था। आप के धवल यश की किरणं चन्टमा के समान समस्त संसार में फैल गई। वीर सम्वत २४५३ में आचार्य श्री ने सम्मेद शिखरको यात्रा के लिए प्रस्थान किया । ऐलक चन्द्र सागर जी भी साथ में थ। संघ फाल्गुन में तीर्थ राज में पहंचा--तीर्थ राज की वन्दना कर अपने को कृत्य-ऋत्य समझा। तीर्थराज पर सघपति पुनम चन्द घासीलाल मे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाई-जिसमें लाखो जैन नर-नारी दर्शनार्थ आये। धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई। वहां से विहार कर कटनी ललितपुर जम्बू स्वामी सिदि क्षेत्र मथुरा में चातुर्मास करके अनेक ग्रामो में धर्मामृत कीवर्षा करते हुए सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पहुंचे। वहां पर आपने वी०सं २४५६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ मोमवार मृग नक्षत्र मकर लग्न में दिन के१० बजे आचार्य श्री शान्ति सागर महाराज के चरण मान्निध्य में दिगम्बर दीक्षा ग्रहणको । समस्त कृत्रिम वस्त्राभूपण का त्याग कर पत्र महाबन पंच ममिति तीन गुप्ति स्प आभूपण तथा २५ मूल गुण रूप वस्त्रों से अपने को मुशोभित किया।
जब धर्म मार्ग अवरुद्ध हुआ, पथ भूल भटकते थे प्राणी । सद्गुरु के उपदेश विना, नहीं जान सके थे जिनवानी ॥ घर दीक्षा मुनि मार्ग बताया, स्वयं बने निश्चल ध्यानी ।
प्रणम श्रीगुरु चन्द्र सिन्धु को-जिनको महिमा सब जग जानी ।। दिगम्बर मुद्रा धारण करना सरल और गुलभ नहीं, अत्यन्त कठिन है। जो धीर-वीर महा पुरुष है-वही इस मुद्रा को धारण कर सकते है। कायर मानव इस मुद्रा को धारण नही कर सकते । आपने इस निर्विकार मुद्रा को धारण कर अनेक नगर और गामों में भ्रमण किया। तथा अपने धर्मोपदेश से जन जनके हृदय पटल ते मिश्याधकार को दूर किया। मुना जाना है कि आपकी वक्तृत्व शक्ति अपूर्व थी। आपका तपोवल, आचार बल, श्रत बल, वचन बल, आत्मिक बल, धैर्य बल, प्रशंसनीय था। सिह वृत्ति धारक
__जिस प्रकार सिंह के समक्ष श्याल नही ठहर सकते-उमी प्रकार आपके सामने वादीगण भी नही ठहर सकते थे । श्याल अपनी मढला मे उहू-उहू कर शोर मचा सकते है परन्तु सिंह के सामने चुप रह जाते है । वैसे ही दिगम्बरत्व के विरोधी जिन शास्त्र के मर्म को नही जानने वाले अज्ञानी दूर से आपका विरोध करते थे परन्तु समक्ष आने के बाद मूक के समान चुप रह जाते थे।
V सुना है कि जिस समय आचार्य श्री का सघ दिल्ली में आया उस समय सरकारी लोगों ने नियम लगा दिया कि दिगम्बर साधु नगर में विहार नही कर सकते । जव यह वार्ता निर्भीक चन्द्र सिधु के कानो पर पड़ी तो उन्होने विचार किया-अहो । ऐसे तो मुनिमार्ग ही रुक जायगा इसलिए उन्होंने आहार करने के लिए शुद्धि को, और वोतराग प्रभु के समक्ष कायोत्सर्ग करके हाथ में कमण्डलु लेकर शहर में जाने लगे, श्रावक गण चिन्तित हो गये क्या होगा[२०]