Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
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दो शब्द भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन धर्मको विराट सांस्कृतिक, साहित्यिक और दार्शनिक उपलब्धियोंका अपना विशेष महत्त्व है। इस बहुमूल्य विरासतको प्रकाशमें लाकर क्रमशः उनका मूल्यांकन और प्रस्तुति एक इतिहासपरक आवश्यकता है । इसके लिए अनिवार्य है अपने ज्ञानके प्रतीकोंके युगानुकूल सहज एवं व्यावहारिक प्रस्तुतिमें सक्षम उत्क्रान्त प्रतिभाओं की । स्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ऐसी ही प्रतिभाओं से एक थे। समय-समयपर इनके द्वारा लिखित (प्रकाशित एवं अप्रकाशित) निबन्धोंका संकलन रूप यह ग्रन्थ पिछले अध्ययन क्रमका द्वितीय खण्ड है । इसके दोनों खण्डोंमें संग्रहीत निबन्धोंका वैशिष्टय लेखककी सम्पूर्ण साहित्यसाधनाका वह प्रस्तार है जिसकी दिशाबोधके संकेत इन निबन्धों में मिलते हैं । जैन धर्म, दर्शन, न्याय, सिद्धान्त, भाषा, साहित्य, इतिहास, गणित, ज्योतिष तथा और भी अन्यान्य विविध विषयोंके एकत्र-न्यायकी इन निबन्धोंमें जो चेष्टा है वह केवल साहित्यकी ही वस्तु नहीं, अपितु ये निबन्ध अनेकधा आराध्य/मननीय और प्रेरणाके स्रोत हैं। दोनों खण्डोंको समग्र रूपमें देखें तो ये निबन्ध जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और उसके विशाल वाङ्मयकी प्रमुख प्रवृत्तियोंकी कथा कह देते हैं।
प्राचीन बहुमूल्य विद्याओंके प्रति हमारा आकर्षण और मोह एक नैसर्गिक सम्मोहन है । क्योंकि उनमें वे तत्त्व निहित हैं जो हमारे आध्यात्मिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक जीवनको सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। स्व० शास्त्रीजीको इस दिशा में सम्पूर्ण भारतीय विद्याओंके अध्ययन, मनन और लेखनमें निरन्तर लगे रहनेका अपना व्यवसन था। और यही कारण है कि उनके द्वारा प्रतिपादित विषय एवं तुलनात्मक अध्ययनमें कहीं संकोच दिखाई नहीं देता। उन्होंने अपने जीवन-कालमें प्राकृत-संस्कृत और जैन विद्याओंकी विविध विधाओंके व्यापक विकास और प्रसारमें जो सतत् तत्परता और अध्यवसाय किया, निश्चय ही वह स्वर्णाक्षरोंमें लिखे जाने योग्य है । उनके सतत् उद्यमशील एवं कर्मठ जीवनको स्मृति आज भी नई चेतना जाग्रत करती है।
प्रस्तुत ग्रन्थके दोनों खण्डोंमें संकलित निबन्धोंका सांगोपाङ्ग और सर्वाङ्गीण अध्ययन वर्तमान तथा आनेवाली पीढ़ियोंके लिए निश्चय ही प्रेरणा-स्रोत सिद्ध होगा, साथ ही अपनी विशेषताओंके कारण यह ग्रन्थ साहित्य जगत्में अपनी अलग और विशिष्ट पहचान बनाएगा, ऐसी आशा है।
विद्वत्परिषद्के सम्माननीय अध्यक्ष, मंत्री, संरक्षक, सम्पादकद्वय तथा अन्य सभी प्रेरक इसलिए विशेष अभिनन्दनीय है कि इन्होंने स्व० शास्त्रीजीके यत्र-तत्र बिखरे गए निबन्धोंको प्रकाशित करनेमें विशेष अभिरुचिको साकार किया, अन्यथा ये बहुमूल्य निबन्ध न मालूम किस अन्धकारमें खो जाते । सम्पादकीय वक्तव्यमें इस ग्रन्थके दोनों खण्डोंमें संकलित निबन्धोंका जो मूल्यांमन किया गया है वह भी अपने आपमें काफी महत्त्वपूर्ण है ।
व्यवस्थित प्रकाशन, अन्तिम प्रूफ संशोधन तथा मुद्रणके समय मुझे इस ग्रन्थके दोनों खण्डोंका अच्छी तरह अध्ययन करनेका अवसर मिला, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।