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इसके मुख्य भेद-- इसमें सामान्य रूप से दो द्रव्य है। एक जीव और दूसरा प्रजीव |
स्वपर प्रत्योत्पाद विगमपर्यावीर यन्ते द्रव्यन्ति वा सानातिया प्रय्याणि । सद्द्रव्य लक्षणम् उत्पाद व्यय धीव उसम सत् ।
अथवा पयस्थानतरम् द्रव्यतीति द्रव्यम् ।
इसमें अनेक प्रकार के जीव और अजीव मुख्य रूप से पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस तरह पाँच प्रकार
के हैं ।
२. लोकाकाश
लोकाकाश की अपेक्षा से आकाश व्याप्त है। लोकाकाश के ऊपर रहने वाले आकाश प्रदेश को अलोकाकाश कहते हैं। इसमें केवल एक प्रकाश द्रव्य ही है और दूसरा कोई भी नहीं। और ये अनन्त रूप है ।
काल द्रव्य
द्रव्य परिवर्तन रूप जो है वह व्यवहार रूप काल होता है। यह कैसा है ? परिणाम क्रिया परराव अपरत्व से जाना जाता है, इसलिये परिणाम आदि लक्ष्य है। अब निश्चय काल को कहते हैं जो वर्तना लक्षण काल है वह परमार्थ ( निश्चय) काल है । जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक परिणामादि रूप है सो व्यवहार काल है ।
जीव तथा पुदगल का परिवर्तन जो नून तथा जीर्ण पर्याय है उस पर्याय की जो समय घड़ी (चौबीस मिनट) पादि रूप स्थिति है वह घड़ी घण्टा आदि के रूप में द्रव्य पर्याय रूप व्यवहार काल है। ऐसा ही संस्कृतप्राभृत में भी कहा है कि"स्थिति जो वह काल संज्ञक है" सारांश यह है कि द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो समय घड़ी घण्टा आदि रूप स्थिति है वह स्थिति ही व्यवहार काल है। यह पर्याय व्यवहार काल नहीं है क्योंकि पर्याय सम्बन्धिनी स्थिति व्यवहार काल है। इसी कारण जीव और पुद्गल के परिणाम रूप पर्याय से देशान्तर में आने जाने रूप से गाय दुहने रसोई करने श्रादि हलन चलन रूप क्रिया से दूर या समीप देश में चमन रूप काल कुत परत्व तथा पश्य से (छोटा बड़ापन) यह काल जाना जाता है। इसलिये व्यवहार काल परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षण वाला कहा जाता है ।
द्रव्य रूप निश्चय काल का निरूपण करते हैं
अपने-अपने उपादान रूप कारण से स्वयं परिणमन करते हुये पदार्थों को जैसे कुम्भकार के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है अथवा शीतकाल में छात्रों को पढ़ने के लिये पनि सहकारी है। उसी प्रकार जो परिणमन में सहायक है उसको वर्तना कहते हैं। वह वर्तना ही है लक्षण जिसका सो ऐसा कालाणु द्रव्य रूप निश्चय काल है । इस प्रकार व्यवहार काल तथा निश्चय काल का स्वरूप जानना चाहिये ।
समय रूप ही निश्चय काल है उस समय से भिन्न कालाणु द्रव्य रूप और कोई निश्चय काल नहीं है। क्योंकि वह देखने में नहीं आता । इसका उत्तर यह है "कि समय तो काल का ही पर्याय है। यदि कोई यह पूछे कि समय काल की पर्याय कैसे है ?"
पर्याय "मश्र उप्पण्ण पद्धंसी" इस आगम के वाक्य के अनुसार उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती है पर वह पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती । यदि समय को ही काल मान ले तो उस समय रूप पर्याय काल का उपादान कारण भुत द्रव्य भी काल रूप ही होना चाहिये। क्योंकि जैसे ईधन अग्नि श्रादि सहकारी कारण से उत्पन्न पके चावल का उपादान कारण चावल ही होता है अथवा कुम्भकार वाक चीवर आदि बहिरंग निमित्त कारण से उत्पन्न जो मिट्टी की घटपर्याय है उसका उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड हो है अथवा नर नारक प्रादि जो जीव की पर्याय हैं उनका उपादान कारण जीव है। इसी तरह समय घड़ी श्रादि काल का भी उपादान कारण काल ही होना चाहिये यह नियम भी इसलिये है कि अपने उपादान कारण के समान ही कार्य होता है ऐसा वचन है। कदाचित् ऐसा हो कि "समय" घड़ी आदि काल पर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है, किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति के मन्द गति में परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है तथा निमित्त रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पलक का गिरना फीर खुलना अर्थात पलक का गिरना और उठना उपादान कारण है ऐसे ही घड़ी रूप काल
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