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विभाव-व्यंजन-पर्याय होते हैं, उसी तरह पुद्गल में निश्चय नय की अपेक्षा शुद्ध परमाणु दशारूप स्वभाव-व्यंजन पर्याय के विद्यमान होते हुए भी "स्निग्ध तथा रूक्षता से बन्ध होता है। इस वचन से राग और द्वेष के स्थानीय बंध योग्य स्निग्ध तथा रुक्ष परिणाम के होने पर पहले बतलाये गये शब्द प्रादि के सिवाय अन्य भी शास्त्रोक्त सिकुड़ना, दही, दूध, प्रादि विभाव व्यंजन पर्याय जानना चाहिए।
धर्म द्रव्य गमा परिणत गमल और सीनोंलो गरल सहकारी धर्मद्रव्य है-जैसे मछलियों को गमन में जल सहकारी है। गमन न करते हुए (ठहरे हुए) पुद्गल व जीवों को धर्म द्रव्य गमन नहीं कराता।
चलते हए जीव तथा पुदगलों को चलने में सहकारी धर्म द्रव्य होता है। इसका दृष्टान्त यह है कि जैसे मछलियों के गमन में सहायक जल हैं। परन्तु स्वयं ठहरे हुए जीव पुदगलों को धर्म द्रव्य गमन नहीं कराता। तथंब जैसे सिद्ध भगवान अमूर्त हैं, क्रिया रहित हैं तथा किसी को प्रेरणा भो नहीं करते, तो भी मैं सिद्ध के समान अनन्त ज्ञानादि गणरूप है, इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्ध भक्ति के धारक और निश्चय से निविकल्पक ध्यान रूप अपने उपादान कारण से परिणत भव्य जीवों को बे सिद्ध भगवान सिद्ध गति में सहकारी कारण होते हैं ऐसे ही क्रिया रहित, अमूर्त प्रेरणारहित धर्म द्रव्य भी अपने उपादान कारणों से गमन करते हुए जीव तथा पुद्गल को गमन में सहकारी कारण होता है। जैसे मत्स्य प्रादि के गमन में जल प्रालि सहायक कारण होने का लोक प्रसिद्ध दष्टांत है, यह अभिप्राय है।
अधर्म द्रव्य ठहरे हुए पुदगल तथा जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है। उसमें दृष्टांत-जैसे छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी कारण है । परन्तु स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है। सो ऐसे है-यद्यपि निश्चय नय से आत्म अनुभव से उत्पन्न सुखामृत रूप जो परम स्वास्थ्य है वह निज रूप में स्थिति का कारण है, परन्तु मैं
योनि जोब के उत्पन्न होने के आधार भूत पुदगल स्कन्ध को योनि कहते हैं। यू यति इति योनि-योनि आधार जन्म आधेय योनि के आधार से जीव समर्थन गर्भ उत्पादन जन्म के सम्बन्ध से शरीर आहार इन्द्रियों के योग्य पुद्गल वर्गणा को ग्रहण करते हैं। इसमें आकार योनि और गुण योनि दो भेद हैं। आकार योनि के शंत्रा-वृत कूर्मोख और वंश पत्र ऐसे तीन उपभेद हैं । दांखावृत योनि में गर्भ धारण नहीं होता है । तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ ऐसे तीथं कर महापुरुषों का सद्धर्म प्रवर्तक चक्रवर्ती बलभद्र उनके सहोदर आदि का जन्म होता है। अर्थात् दूसरों का जन्म नहीं होता । वंशपत्र योनि में जीव गर्भ जन्म होते है।
१-सचित्र, २-शीत, ३-संभरण, ४-अचित्त, ५-उष्ण, ६-निवृत्त, ७-मित्र अर्थात् सचित्त अचित्त, ८--शीतोष्ण, ६-संबर विवर्त इस प्रकार य र प्रकार हैं। उत्पाद जन्म सम्बन्ध देव नारको जीवों की योनि जीव रहित अचित होता है। कहीं शीत कहीं उष्ण इस प्रकार दो प्रकार के होते है। गर्भ जन्म सम्बन्ध रखने वाले सचित्त चित्त युक्त रूप मिश्र वोनि और सम्पूर्ण जन्म सम्बन्ध रहने वाले सचित्त और अचित्त और मिश्र इस प्रकार गर्भ जन्म और सम्पूर्ण से सम्बन्ध रखने वाले इसी प्रकार तीन प्रकार के होते हैं।
एकेन्द्रिय तेजकायिक के उष्ण योनि देव नारकी और एकेन्द्रिय जीवों को समवृत योनि होती है। विकेन्द्रिय अर्थात् वि, त्रि, चार इन्द्रिय जीवों को खुले रहता है । गर्भ जन्म जीवों की योनि सम्वत्त निवृत्त ऐसे दो रूप मिश्र योनि सम्पूर्ण आदि युगपत होता है। इस प्रकार सामान्य रूप से गुण योनि होती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर भेद को कहते हैं। नित्य निगोद
७ लाख पृथ्वी अग्नि तेज वायु
७ लाख प्रत्येक प्रत्येक
इस प्रकार ये २८ लाख होते हैं बनस्पति
१० लाख द्विइन्द्रिय विहन्द्रिय चतुइन्द्रिय
२ लाख प्रत्येक लास देव नारकी तिथंच प्रत्येक के
४ लाख-१२ लाख