Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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श्रीमाथुरान्वयेति - जो श्री माथुरान्वयरूपी महासागर को समुल्लसित करने के लिये पूर्ण चन्द्रमा थे, मोह रूपी अन्धकार के प्रसार को जिन्होंने नष्ट कर दिया था, जो प्रशस्त अनन्त कीर्ति से युक्त थे तथा ध्यान रूपी अग्नि से जिन्होंने काम को भस्म कर दिया था, ऐसे अनन्तकीर्ति मुनि उन अश्वसेन मुनि के पट्टाभरण थे ॥२॥
काष्ठासंघे भुवनविदिते क्षेमकीर्तिस्तपस्वी लीलाध्यानप्रसृमरमहामोहदावानलांभः । आसीदासीकृतरतिपतिर्भूपतिश्रेणिवेणी
प्रत्यग्रसवत्सहचरपदद्वंद्वपद्मस्ततोपि ॥३॥ काष्ठेति - उन अनन्तकीर्ति के बाद संसारप्रसिद्ध काष्ठासंघ में क्षेमकीर्ति नाम के तपस्वी मुनि हुए जो विषय सम्बन्धी ध्यान से फैलने वाले, महामोह रूपी दावानल को शान्त करने के लिये जल थे, जिन्होंने काम को दास बना लिया था, और जिनके चरण कमलों के युगल राजसमूह की चोटी में लगी हुई नवीनमालाओं से सहित थे ।।३।।
तत्पट्टोदयभूधरेऽतिमहति प्राप्तोदये दुर्जयं रागद्वेषमहांधकारपटलं संवित्करैर्दारयन् । श्रीमान् राजति हेमकीर्तितरणिः स्फीतां विकासश्रियं
भव्यांभोजचये दिगंबरपथालंकारभूतो दधत् ॥४॥ तत्पद्रोदयेति - उन क्षेमकीर्ति के पट्ट रूपी विशाल उदयाचल पर उदय को प्राप्त करने वाले हेमकीर्ति नामके मुनि हुए जो कि सूर्य के समान थे तथा कठिनाई से जीतने योग्य राग द्वेष रूपी महान् अन्धकार के समूह को सम्यग्ज्ञान रूपी किरणों से विदीर्ण करते थे, श्रीमान् थे, भव्य जीव रूपी कमलों के समूह में अत्यधिक विकास की शोभा को धारण करते थे और दिगम्बर पथ के अलंकार स्वरूप सुशोभित हो रहे थे॥४॥
विदितसमयसारज्योतिषः क्षेमकीर्तिहिमकरसमकीर्तिः पुण्यमूर्तिर्विनेयः। जिनपतिशुचिवाणीस्फारपीयूषवापी
स्नपनशमिततापो रत्नकीर्तिश्चकास्ति ॥५॥ विदितेति - उन हेमकीर्ति के क्षेमकीर्ति नामक शिष्य थे जो समयसार रूप ज्योतिष के ज्ञाता थे, चन्द्रमा के समान कीर्ति से सहित थे तथा पुण्यमूर्ति थे। उनके शिष्य रत्नकीर्ति थे जिन्होंने जिनेन्द्र भगवान् की पवित्र वाणी रूपी अमृत की वापिका में स्नान कर संताप को शान्त किया था ॥५॥