Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 27
________________ [२१ क ] things or aspects. Rather it is a transcendence of all views, while Janism may be regarded as a synthesis of all views. If realism is to be accepted why not syādväda ? Shri Udaya Chandraji has earned the gratitude of all interested in Indian Philosophy and specially those interested in Jainism by writing this valuable book. I am sure it will be appreciated by all, the general readers as well as by specialists. R. K. Tripathi. D. Litt. Varanasi ____Professor & Head of the 15-1-75 Department of Philosophy Banaras Hindu University हिन्दी-सार प्रौढ़ विद्वान् और अनुभवी प्राध्यापक श्री उदयचन्द्र जैनके इस कार्यके विषय में कुछ लिखनेमें मुझे आनन्दका अनुभव हो रहा है। वे केवल जैनदर्शनके ही विद्वान् नहीं हैं किन्तु बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शनोंके भी विद्वान् हैं और आचार्य समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी प्रस्तुत हिन्दी व्याख्या में उनकी विद्वत्ता प्रतिविम्बित हुई है। लेखकने इस व्याख्या में आचार्य अकलंककी अष्टशती और आचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीका व्यापकरूपसे उपयोग किया है। मुझे यह कहनेमें प्रसन्नता हो रही है कि उन्होंने इस कार्यको बहुत ही उत्तमरूपसे सम्पन्न किया है और इसके लिए वे बधाईके पात्र हैं। श्री उदयचन्द्र जैनने इस मूल्यवान् ग्रन्थको लिखकर उन सबकी कृतज्ञता प्राप्त कर ली है जो भारतीय दर्शनमें और विशेषरूपसे जैनदर्शनमें रुचि रखते हैं। ___आप्तमीमांसाका विषय आप्तविषयक समस्याओंकी समीक्षा करना है। इसका उद्देश्य स्याद्वादकी संस्थिति भी है। जैनदर्शद और बौद्धदर्शन दोनों ही वेदके प्रामाण्यका तथा सृष्टिकर्ता ईश्वरका निषेध करते हैं, किन्तु दोनों ही आप्तकी सत्ताको स्वीकार करते हैं। जैनदर्शनके अनुसार आप्तमें सर्वज्ञता, वीतरागता और हितोपदेशिता ये तीन गुण होना आवश्यक हैं। जो सर्वज्ञ नहीं है वह सत्य और शिवको नहीं जान सकता है । मीमांसक पुरुषकी सर्वज्ञताका निषेध करके वेदकी सर्वज्ञताका प्रतिपादन करते हैं। उन्हें भय है कि यदि पुरुषकी सर्वज्ञताको मान लिया गया तो वेद व्यर्थ हो जायेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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