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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 करता है कि कर्म ही उदय में आने परद्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय पाकर ज्ञान को परिष्कृत करके शुभ और अशुभ फल देते हैं। कर्मों के शुभ-अशुभ फल के साथ ही साथ उदय, उदीरणा, संक्रमण, बन्ध और मोक्ष का विचार करना भी विपाक विचय धर्मध्यान है। इस ध्यान के द्वारा साधक शुभ-अशुभ कर्मो को या द्रव्य-भाव कर्मों को अच्छी तरह समझकर कर्मों के बन्ध से छुटकारा पाने का प्रयास करता है। विपाक को ध्येय बनाकर वह अपने स्वभाव से उसे भिन्न जानकर साधना करता है। इस ध्यान से साधक का चित्त शान्त और निर्मल होता है और वह कर्मों के नाश करने की दिशा को समझ लेता है। इस प्रकार स्वात्मोपलब्धि रूप ध्यान के फल को पा लेता
संस्थान विचय धर्मध्यान - संस्थान का अभिप्राय आकार से है। आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार इस ध्यान में द्रव्यों के लक्षण, आकार, आसन भेद मान आदि का विचार किया जाता है। पर्याय की दृष्टि से पदार्थो का उत्पाद
और व्यय होता ही रहता है लेकिन द्रव्य की दृष्टि से देखा जाय तो पदार्थ नित्य ही रहता है। भगवती आराधना में भेदों से युक्त तथा वेत्रासन, झल्लरी
और मृदंग के समान आकार के साथ अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक के चिंतन को संस्थान प्रमाण और आयु के चिंतन को संस्थान विचय धर्मध्यान कहा है। अधिकतर ग्रन्थकारों ने तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु के चिंतन को संस्थान विचय धर्मध्यान माना है। इस ध्यान को करने से जीव या साधक की नित्य-अनित्यादि पर्यायों का विचार करने से वैराग्य की भावना प्रशस्त और सुदृढ़ हो जाती है। इसमें तीनों लोकों के स्वरूप आदि का विस्तार से चिंतन होता है, जिसको ज्ञानार्णव में बहुत विस्तार से समझाया है।
धर्मध्यान के उक्त चारों भेदों के अलावा छह भेद और भी बतलाये है। जो इस प्रकार है - उपाय विचय, जीव विचय, अजीव विचय, विराग विचय, भव विचय, हेतु विचय। इनका वर्णन सभी ग्रन्थों में नहीं मिलता किन्तु ऐसे कुछ ही ग्रन्थ हैं जिनमें इनके स्वरूप को दर्शाया गया है।
आगमों के उत्तरवर्ती साहित्य में धर्मध्यान का एक दूसरा वर्गीकरण भी प्राप्त होता है। किसी भी साधक का ध्यान एकाएक निरालम्ब वस्तु में