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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
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(४) अजीव विचय (५) विपाक विचय (६) विराग विचय (७) भवविचय (८) संस्थान विचय (९) आज्ञाविचय (१०) हेतु विचय नामक दश भेद कहे हैं। यहां पर ज्ञानार्णव में वर्णित धर्मध्यान के चार भेदों को स्पष्ट करना आवश्यक होने से उन्हीं का वर्णन किया जा रहा है - आज्ञाविचय धर्मध्यान - सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रधान मानकर उसके बताये गये पदार्थों का इस ध्यान में चिंतन किया जाता है। जो इन्द्रियों से दिखाई नहीं देते ऐसे बन्ध मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के अनुसार ध्यान करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है।१२ अपायविचय धर्मध्यान - अपाय का अर्थ है दोष अथवा दुर्गुण। जिनसे सांसारिक जीव परेशान होता है और रागद्वेष क्रोधादिक कषाय मिथ्यात्वादि ये सब दोषों के अंतर्गत आते हैं। साधक इनसे छूटने का प्रयत्न करता है
और चिंतन करता है ऐसे चिंतन करने को ही अपाय विचय धर्मध्यान कहते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि कर्मों के नाश का मुख्य साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की त्रिपुटी अर्थात् रत्नत्रय ही है। इनका चिंतन करना क्योंकि इस ध्यान में कर्मों के आस्रव को रोकने का चिंतन किया जाता है। इस ध्यान में यह भी विचार किया जाता है कि मिथ्यात्व के वशीभूत होकर रागद्वेष में लिप्त हुए प्राणी जो दुःख या कष्ट उठा रहे हैं और जन्म-मरण के भव में पडे हए हैं उन्हें कैसे छटकारा हो सकता है। ज्ञानार्णवकार ने और भी कहा है कि साधक इस ध्यान में सभी दोषों को जानता है, और उनसे बचने का उपाय निरंतर करता रहता है। नये कर्मो का बन्ध किन उपायों से नहीं होगा, ऐसे उपायों को भी सोचता और करता है। आत्मा की सिद्धि के लिए निश्चय कर लेता है।५ विपाक विचय धर्मध्यान - विपाक का अभिप्राय कर्म फल से है। कर्म फल शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के होते हैं इन्हीं कर्म फल के चिन्तन को विपाक विचय कहते हैं। आचार्य श्री शुभचन्द्र ने विपाक विचय धर्मध्यान को इस प्रकार से समझाते हुए कहा है कि कमों की विचित्रता पर विचार करके उनके क्षण-प्रतिक्षण उदय होने की प्रक्रिया पर चिन्तन करना विपाक विचय धर्मध्यान कहलाता है। इस ध्यान के माध्यम से साधक विचार