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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
धर्मध्यान और उसका फल
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'डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
वस्तु तत्त्व अथवा सत्यता को खोजने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया का नाम धर्म्यध्यान है। यह कोई धर्म अधर्म का ध्यान नहीं है। किन्तु वस्तु धर्मों का ध्यान है। वस्तु की पर्यायों का ध्यान है। इससे तत्त्व का अन्वेषण किया जाता है। वस्तु तत्त्व का अन्वेषण करते-करते साधक सत्यता की प्राचीर को प्राप्त कर लेता है। धर्मध्यान से चित्त की वृत्तियाँ शान्त होती हैं, जिन्हें चित्त की वृत्तियां कहा जाता है, वे सब यथार्थ में आत्मा की ही वृत्तियाँ हैं। रागी -द्वेषी आत्मा ही मन के द्वारा उन व्यापारों में प्रवृत्त होता है। अतः जब तक राग-द्वेष पर नियंत्रण नहीं होता तब तक चित्त की चंचलता पर नियंत्रण नहीं हो सकता है। ध्यान के द्वारा ही वस्तु तत्त्व को जानना संभव है, अतः इसका सर्वातिशानयि माहात्म्य है।
ज्ञानार्णव में धर्मध्यान को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो तत्त्व जिस रूप से अवस्थित है उसका उसी स्वरूप से प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए तथा आत्मा की विशुद्धि का भी अनुभव करने के लिए निरंतर स्वरूप में स्थित रहना ही धर्मध्यान है ।
“धर्मादनपेतं धर्म्यम्” अर्थात जो धर्म से युक्त होता है, वह धर्म्य है तथा संसार शरीर भोगों से विरक्त होने के लिए अर्थात् विरक्त होने पर उस भाव को बनाये रखने पर जो प्रणिधान होता है, उसे धर्मध्यान कहते हैं। यह उत्तम क्षमादि धर्मयुक्त होता है। धर्मनाम स्वभाव का है। जीव का स्वभाव आनन्द है न कि पञ्चेन्द्रिय सुख । अतः यह अतीन्द्रिय आनन्द जीव
धर्म है, जिससे धर्म का परिज्ञान होता है, वही धर्मध्यान है अथवा जो धर्म से युक्त है, वह धर्म है और इससे जो ध्यान किया जाय वह धर्मध्यान है।' आचार्य रामचन्द्र ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को धर्म कहकर उस धर्म के चिंतन से युक्त ध्यान को धर्मध्यान कहा है।' यह प्रशस्त / शुभ या सद्ध्यान माना गया है क्योंकि इस ध्यान से जीव का