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संस्तारक-८०
की असारता को जानकर श्रमणत्व अंगीकार किया । श्रुतसागर के रहस्यो को प्राप्त किये हुए ऐसे उन्होने पादपोपगम अनशन स्वीकार किया । अकस्मात् नदी की बाढ़ से खींचते हुए बड़े द्रह मध्य में वो चले गए । ऐसे अवसर में भी उन्होंने समाधिपूर्वक पंड़ित मरण प्राप्त किया।
[८१-८३] कृणाल नगर में वैश्रमणदास नाम का राजा था । इस राजा का रिष्ठ नाम का मंत्री कि जो मिथ्या दृष्टि और दुराग्रह वृत्तिवाला था । उस नगर में एक अवसर पर मुनिवर के लिए वृषभ समान, गणिपिटकरूप श्री द्वादशांगी के धारक और समस्त श्रुतसागर के पार को पानेवाले और धीर ऐसे श्री ऋषभसेन आचार्य,अपने परिवार सहित पधारे थे । उस सूरि के शिष्य श्री सिंहसेन उपाध्याय कि जो कई तरह के शास्त्रार्थ के रहस्य के ज्ञाता और गण की तृप्ति को करनेवाले थे । राजमंत्री रिष्ठ के साथ उनका वाद हुआ । वाद में रिष्ठ पराजित हुआ । इससे रोष से धमधमते, निर्दय ऐसे उसने प्रशान्त और सुविहित श्री सिंहसेन ऋषि को
अग्नि से जला दिया । शरीर अग्नि से जल रहा है । इस अवस्था में उस ऋषिवर ने समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त किया ।
[८४] हस्तिनागपुर के कुरुदत श्रेष्ठीपुत्र ने स्थविरो के पास दीक्षा को अपनाया था। एक अवसर पर नगर के उद्यान में वो कायोत्सर्गध्यान में खड़े थे । वहाँ गोपाल ने निर्दोष ऐसे उनको शाल्मली पेड के लकड़े की तरह जला दिया । फिर भी इस अवस्था में उन्होंने समाधिपूर्वक पंड़ित मरण प्राप्त किया ।
[८५] चिलातीपुत्र नाम के चोर ने, उपशम, विवेक और संवररूप त्रिपदी को सुनकर दीक्षा ग्रहण की । उस अवसर पर वो वहाँ ही कायोत्सर्गध्यान में रहें । चींटीओं ने उनके शरीर को छल्ली कर दिया । इस तरह शरीर खाए जाने के बाद भी उन्होंने समाधि से मरण पाया।
[८६] श्री गजसुकुमाल ऋषि नगर के उद्यान में कायोत्सर्गध्यान में रहें थे । निर्दोष और शान्त ऐसे उनको, किसी पापी आत्माने हजारो खीले से जैसे कि मढ़ा दिया हो उस तरह से हरे चमड़े से बाँधकर, पृथ्वी पर पटका । इसके बावजूद भी उन्होंने समाधिपूर्वक मरण पाया। (इस कथानक में कुछ गरबडी होने का संभव है ।)
[८७] मंखली गोशालक ने निर्दोष ऐसे श्री सुनक्षत्र और श्री सर्वानुभूति नाम के श्री महावीर परमात्मा के शिष्य को तेजोलेश्या से जला दिया था । उस तरह जलते हुए वो दोनों मुनिवर ने समाधिभाव को अपनाकर पंड़ित मरण पाया ।
[८८] संथारा को अपनाने की विधि उचित अवसर पर, तीन गुप्ति से गुप्त ऐसा क्षपकसाधु ज्ञपरिज्ञा से जानता है । फिर यावजीव के लिए संघ समुदाय के बीच में गुरु के आदेश के अनुसार आगार सहित चारों आहार का पच्चक्खाण करता है ।
[८९] या फिर समाधि टीकाने के लिए, कोई अवसर में क्षपक साधु तीन आहार का पच्चक्खाण करता है और केवल प्रासुक जल का आहार करता है । फिर उचित काल में जल का भी त्याग करता है ।।
[९०] शेषलोगों को संवेग प्रकट हो उस तरह से वह क्षपक क्षमापना करे और सर्व संघ समुदाय के बीच में कहना चाहिए कि पूर्वे मन, वचन और काया के योग से करने, करवाने और अनुमोदने द्वारा मैंने जो कुछ भी, अपराध किए हो उन्हें मैं खमाता हूँ।" ।
[९१] दो हाथ को मस्तक से जुड़कर उसे फिर से कहना चाहिए कि शल्य से रहित