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चन्द्रवेध्यक- ६०
कोटि के नियम और दुसरे भी कई गुण निष्फल - निरर्थक बनते है ।
[६१] अनन्तज्ञानी श्री जिनेश्वर भगवन्त ने सर्व कर्मभूमि में मोक्षमार्ग की प्ररूपणा करते हुए सर्वप्रथम विनय का ही उपदेश दिया है ।
[६२] जो विनय है वही ज्ञान है जो ज्ञान हैं, वो ही विनय है । क्योंकि विनय से ज्ञान मिलता है और ज्ञान द्वारा विनय का स्वरूप जान शकते है ।
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[ ६३ ] मानव के पूरे चारित्र का सार विनय में प्रतिष्ठित है इसलिए विनयहीन मुनि की प्रशंसा निर्ग्रन्थ महर्षि नहीं करते ।
[ ६४ ] बहुश्रुत होने के बावजुद भी जो अविनीत और अल्प श्रद्धा-संवेगवाला है वो चारित्र का आराधन नहीं कर शकता और चारित्र - भ्रष्ट जीव संसार में घूमता रहता है ।
[६५] जो मुनि थोड़े से भी श्रुतज्ञान से संतुष्ट चित्तवाला बनकर विनय करने में तत्पर रहता है और पाँच महाव्रत का निरतिचार पालन करता है और मन, वचन, काया को गुप्त रखता है, वो यकीनन चारित्र का आराधक होता है ।
[ ६६ ] बहुत शास्त्र का अभ्यास भी विनय रहित साधु को क्या लाभ करवा शके ? लाखो-करोड़ों झगमगाते दीए भी अंधे मानव को क्या फायदा करवा शके 1
[ ६७ ] इस तरह मैंने विनय के विशिष्ट लाभो का संक्षेप में वर्णन किया । अब विनय से शीखे श्रुतज्ञान के विशेष गुण - लाभ का वर्णन करता हूँ वो सुनो ।
[ ६८ ] श्री जिनेश्वर परमात्मा ने उपदेश दिए हुए, महान विषयवाले श्रुतज्ञान को पूरी तरह जान लेना मुमकीन नहीं है । इसलिए वो पुरुष प्रशंसनीय है, जो ज्ञानी और चारित्र सम्पन्न है ।
[ ६९ ] सुर, असुर, मानव, गरुड़कुमार, नागकुमार एवं गंधर्वदेव आदि सहित उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्छालोक का विशद स्वरूप श्रुतज्ञान से जान शकते है ।
[७०] जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बँध, निर्जरा और मोक्ष - यह नौ तत्त्व को भी बुद्धिमान पुरुष श्रुतज्ञान द्वारा जान शकते है । इसलिए ज्ञान चारित्र का हेतु है । [७१] जाने हुए दोष का त्याग होता है, और जाने हुए गुण का सेवन होता है, यानि कि धर्म के साधन भूत वो दोनों चीज ज्ञान से ही सिद्ध होती है ।
[७२] ज्ञान रहित अकेला चारित्र (क्रिया) और क्रिया रहित अकेला ज्ञान भवतारक नहीं बनते । लेकिन (क्रिया) संपन्न ज्ञानी ही संसार सागर को पार कर जाता है ।
[७३] ज्ञानी होने के बावजूद भी जो क्षमा आदि गुण में न वर्तता हो, क्रोध आदि दोप को न छोड़े तो वो कभी भी दोपमुक्त और गुणवान नहीं बन शकता ।
[७४] असंयम और अज्ञानदोप से कईं भावना में बँधे हुए शुभाशुभ कर्म मल को ज्ञानी चारित्र के पालन द्वारा समूल क्षय कर देते है ।
[ ७५ ] बिना शस्त्र के अकेला सैनिक, या बिना सैनिक के अकेले शस्त्र की तरह ज्ञान बिना चारित्र और चारित्र बिना ज्ञान, मोक्ष साधक नहीं बनता ।
[ ७६ ] मिथ्यादृष्टि को ज्ञान नहीं होता, ज्ञान विना चारित्र के गुण नहीं होते, गुण विना सम्पूर्ण क्षय समान मोक्ष नहीं और सम्पूर्ण कर्मक्षय- मोक्ष बिना निर्वाण नहीं होता ।
[७७] जो ज्ञान है, वो ही करण चारित्र है, जो चारित्र है, वो ही प्रवचन का सार है,