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चन्द्रवेध्यक-१५६
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[१५६] एक बार भी शल्य सहित मरण से मरकर जीव महाभयानक इस संसार में बार-बार कईं जन्म और मरण करते हुए भ्रमण करते है ।
[१५७] जो मुनि पाँच समिति से सावध होकर, तीन गुप्ति से गुप्त होकर, चिरकाल तक विचरकर भी यदि मरण के समय धर्म की विराधना करे तो उसे ज्ञानी पुरुष ने अनाराधकआराधना रहित कहा है ।।
[१५८] काफी वक्त पहले अति मोहवश जीवन जी कर अन्तिम जीवन में यदि संवृत्त होकर मरण के वक्त आराधना में उपयुक्त हो तो उसे जिनेश्वर ने आराधक कहा है ।
[१५९] इसलिए सर्वभाव से शुद्ध, आराधना को अभिमुख होकर, भ्रान्ति रहित होकर संथारा स्वीकार करता हुआ मुनि अपने दिल में इस मुताबिक चिन्तन करेगा ।
[१६०] मेरी आत्मा एक है, शाश्वत है, ज्ञान और दर्शन युक्त है । शेष सर्व-देहादि बाह्य पदार्थ संयोग सम्बन्ध से पेदा हुआ है ।।
[१६१] मैं एक हूँ, मेरा कोई नहीं या मैं किसी का नही । जिसका मैं हूँ उसे मैं देख नहीं शकता, और फिर ऐसी कोई चीज नहीं कि जो मेरी हो ।
[१६२१६३] पूर्वे-भूतकाल में अज्ञान दोष द्वारा अनन्तबार देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यंचयोनि और नरकगति पा चूका हूँ । लेकिन दुःख की कारण ऐसे अपने ही कर्म द्वारा अब तक मुझे न तो संतोष प्राप्त हआ न सम्यकत्व युक्त विशुद्धि पाई ।
[१६४] दुःख से मुक्त करवानेवाले धर्म में जो मानव प्रमाद करते है, वो महा भयानक ऐसे संसार सागर में दीर्घ काल तक भ्रमण करते है ।
। [१६५] दृढ-बुद्धियुक्त जो मानव पूर्व-पुरुष ने आचरण किए जिनवचन के मार्ग को नहीं छोड़ते, वो सर्व दुःख का पार पा लेते है ।
[१६६] जो उद्यमी पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष का क्षय करता है, वो परम-शाश्वत सुख समान मोक्ष की यकीनन साधना करता है ।
[१६७] पुरुष के मरण वक्त माता, पिता, बन्धु या प्रिय मित्र कोई भी सहज मात्र भी आलम्बन समान नहीं बनता मतलब मरण से नहीं बचा शकते ।
_ [१६८] चाँदी, सोना, दास, दासी, रथ, बैलगाड़ी या पालखी आदि किसी भी बाह्य चीजे पुरुष को मरण के वक्त काम नहीं लगते, आलम्बन नहीं दे शकते ।
[१६९] अश्वबल, हस्तीबल, सैनिकबल, धनुबल, रथबल आदि किसी बाह्य संरक्षक चीजे मानव को मरण से नहीं बचा शकते ।
[१७०] इस तरह संक्लेश दूर करके, भावशल्य का उद्धार करनेवाले आत्मा जिनोक्त समाधिमरण की आराधना करते हुए शुद्ध होता है ।
[१७१] व्रत में लगनेवाले अतिचार-दोष की शुद्धि के उपाय को जाननेवाले मुनि को भी अपने भावशल्य की विशुद्धि गुरु आदि परसाक्षी से ही करनी चाहिए ।
[१७२] जिस तरह चिकित्सा करने में माहिर वैद्य भी अपने बिमारी की बात दुसरे वैद्य को करते है, और उसने बताई हुई दवाई करते है । वैसे साधु भी उचित गुरु के सामने अपने दोष प्रकट करने उसकी शुद्धि करते है ।
[१७३] इस तरह मरणकाल के वक्त मुनि को विशुद्ध प्रव्रज्या-चारित्र पेदा होता है,