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व्यवहार- १/१८
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का, पाँच मास का, साधिक पाँच मास का प्रायश्चित् स्थानक में से अनोखा ( दुसरा किसी भी ) पाप स्थानक सेवन करके आलोचना करते हुए माया रहित या मायापूर्वक आलोचते हुए सकल संघ के सन्मुख परिहार तप की स्थापना करे, स्थापना करने उसकी वैयावच्च करवाए । यदि सम्पूर्ण प्रायश्चित् लगाए तो उसे वहीं परिहार तप में रख देना । वो कईं दोष लगाए उसमें जो प्रथम दोष लगा हो वो पहले आलोवे पहला दोष बाद में आलोवे, बाद के दोष पहले आलोवे, बाद के दोष बाद में आलोवे तो चार भेद मानना । सभी अपराध की आलोचना करेंगे ऐसा संकल्प करते वक्त माया रहित आलोचना करने की सोचे और आलोचना भी माया रहित करे, माया सहित सोचकर माया रहित आलोवे, माया रहित सोचकर माया सहित आलोवे माया सहित सोचे और माया सहित आलोवे ऐसे चार भदे जानना ।
इस तरह आलोचना करके फिर सभी अपने किए हुए कर्म समान पाप को इकट्ठे करके प्रायश्चित् दे । उस तरह प्रायश्चित् तप के लिए स्थापन किए साधु को तप पूर्ण होने से बाहर नीकलने से पहले फिर से किसी दोष का सेवन करे तो उस साधु को पूरी तरह से उस परिहार तप में फिर से रखना चाहिए ।
[१९] बहुत प्रायश्चित् वाले बहुत प्रायश्चित् न आए हो ऐसे साधु इकट्ठे रहना या बैठना चाहे, चिन्तवन करे लेकिन स्थविर साधु को पूछे बिना न कल्पे । स्थविर को पूछकर ही कल्पे । यदि स्थविर आज्ञा दे कि तुम इकट्ठे विचरो तो इकट्ठे रहना या बैठना कल्पे, यदि स्थविर इकट्ठे विचरने की अनुमति न दे तो वैसा करना न कल्पे, यदि स्थविर की आज्ञा बिना दोनों इकट्ठे रहे, बैठे या वैसा करने का चिन्तवन करे तो उस साधु को उतने दिन का छेद या परिहार तप प्रायश्चित् आता है ।
[२०-२२] परिहार तप में रहे साधु बाहर स्थविर की वैयावच्च के लिए जाए तब स्थविर उस साधु को परिहार तप याद करवाए, याद न दिलाए या पहले याद हो लेकिन जाते वक्त याद करवाना रह जाए तो साधु को एक रात का अभिग्रह करके रहना कल्पे और फिर जिस दिशा में दुसरे साधर्मिक साधु साध्वी विचरते हो उस दिशा में जाए लेकिन वहाँ विहार आदि निमित्त से रहना न कल्पे लेकिन बिमारी आदि की कारण से रहना कल्पे वो कारण पूरी होने पर दुसरे कहे कि अहो आर्य ! एक या दो रात रहे तो वो वैयावच्च के लिए जानेवाले परिहार तपसी को एक या दो रात रहना कल्पे । लेकिन यदि एक या दो रात से ज्यादा रहे तो जितना ज्यादा रहे उतने दिन का छेद या परिहार तप प्रायश्चित् आता है ।
[२३-२५] यदि कोई साधु, गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय गण को छोड़कर एकलविहारी प्रतिमा (अभिग्रहविशेष) अंगीकार करके विचरे (बीच में किसी दोष लगाए) फिर से वो ही गण ( गच्छ) को अंगीकार करके विचरना चाहे तो उन साधु, गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय को फिर से आलोचना करवाए, पड़िकमावे, उसे छेद या परिहार तप प्रायश्चित् के लिए स्थापना करे ।
[२६-३०] जो साधु (गच्छ) गण छोड़कर पासत्थारूप से, स्वच्छंदरूप से, कुशीलरूप से, आसन्नरूप से, संसक्तरूप से विचरण करे और वो फिर से उसी (गच्छ) गण को अंगीकार करके विचरण करना चाहे तो उसमें थोड़ा भी चारित्र हो तो उसे आलोचना करवाए, पड़िकमाए, छेद या परिहार तप में स्थापना करे ।