Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 221
________________ २२० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद है । इसलिए यहाँ उनके लिए क्या बताए ? जहाँ तीन लोक के नाथ जगत के गुरु, तीन भुवन के एक बन्धु, तीन लोक के वैसे-वैसे उत्तम गुणके आधार समान श्रेष्ठ धर्म तीर्थंकर के वरण का एक अंगुठे के अग्र हिस्से का केवल एक हिस्सा कईं गुण के समूह से शोभायमान है । उसमें अनन्ता हिस्से का रूप इन्द्रादि वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं है । ये बात विशेष बताते हुए कहते है : देव और इन्द्र या वैसे किसी भक्ति में लीन हुए सर्व पुरुष कईं जन्मान्तर में उपार्जन किए गए अनिष्ट दुष्ट कर्मराशि जनित दुर्गति उद्धेग आदि दुःख दारिद्रय, कलेश, जन्म, जरा, मरण, रोग, संताप, खिन्नता, व्याधि, वेदना आदि के क्षय के लिए उनके अंगुठे के गुण का वर्णन करने लगे तो सूर्य के किरणों के समूह की तरह भगवान के जो कई गुण का समूह एक साथ उनके जिह्वा के अग्र हिस्से पर स्फूरायमान होता है, उसे इन्द्र सहित देवगण एक साथ बोलने लगे तो भी जिसका वर्णन करने के लिए शक्तिमान नहीं है, तो फिर चर्म चक्षुवाले अकेवली क्या बोलेंगे ? - इसलिए हे गौतम ! इस विषय में यहाँ यह परमार्थ समजे कि तिर्थंकर भगवन्त के गुण सागर को अकेले केवलज्ञानी तिर्थंकर ही कहने के लिए शक्तिवर है । दुसरे किसी कहने के लिए समर्थ नहीं हो शकते । क्योंकि उनकी बोली सातिशय होती है । इसलिए वो कहने के लिए समर्थ है । या हे गौतम ! इस विषय में ज्यादा कहने से क्या ? सारभूत अर्थ बताता हूँ वो इस प्रकार है ४९५-४९६] समग्र आँठ तरह के कर्म समान मल के कलंक रहित, देव और इन्द्र से पूजित चरणवाले जीनेश्वर भगवंत का केवल नाम स्मरण करनेवाले मन, वचन, काया समान तीन कारण में एकाग्रतावला, पल-पल में शील और संयम में उद्यम-व्रत नियम में विराधना न करनेवाली आत्मा यकीनन अल्प काल में तुरन्त सिद्धि पाती है । [४९७-४९९] जो किसी जीव संसार के दुःख से उद्धेग पाए और मोक्ष सुख पाने की अभिलाषावाला बने तब वो "जैसे कमलवन में भ्रमण मग्न बन जाए उसी तरह" भगवंत को स्तवना, स्तुति मांगलिक जय जयारख शब्द करने में लीन हो जाए और झणझणते गुंजाख करते भक्ति पूर्व हृदय से जिनेश्वर के चरण-युगल के आगे भूमि पर अपना मस्तक स्थापन करके अंजलि जुड़कर शंकादि दुषण सहित सम्यकत्ववाला चारित्र का अर्थी अखंड़ित व्रतनियम धारण करनेवाला मानवी यदि तीर्थंकर के एक ही गुण को हृदय में धारण करे तो वो जरुर सिद्धि पाता है । [५००] हे गौतम ! जिनका पवित्र नाम ग्रहण करना ऐसे उत्तम फलवाला है ऐसे तीर्थंकर भगवंत के जगत में प्रकट महान् आश्चर्यभूत, तीन भुवन में विशाल प्रकट और महान ऐसे अतिशय का विस्तार इस प्रकार का है । [५०१-५०३] केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और चरम शरीर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया ऐसे जीव भी अरिहंत के अतिशय को देखकर आँठ तरह के कर्म का क्षय करनेवाले होते है। ज्यादा दुःख और गर्भावास से मुक्त होते है, महायोगी होते है, विविध दुःख से भरे भवसागर

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