Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 227
________________ २२६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अशुचि चीज का दूर होना और सुगंधी सुवास स्थापन किया । इन्द्र राजा ने बड़ी भक्ति से अंगूठे के पर्व में अमृताहार का न्यास किया । जन्म हुआ तब तक भगवंत की इन्द्रादिक स्तवना करते थे और फिर...जिस प्रकार दिशिकुमारी ने आकर जन्म सम्बन्धी सूतिकर्म किए । बत्तीस देवेन्द्र गौरखवाली भक्ति से महा आनन्द सहित सर्व ऋद्धि से सर्व तरह के अपने कर्तव्य जिस तरह से पूरे किए, मेरु पर्वत के शिखर पर प्रभु का जन्माभिषेक करते थे तब रोमांच रूप कंचुक से पुलकित हुए देहवाले, भक्तिपूर्ण, गाववाले ऐसा सोचने लगे कि वाकई हमारा जन्म कृतार्थं हुआ । [५७०-५७९] पलभर हाथ हिलाना, सुन्दर स्वर में गाना, गम्भीर दुंदुभि का शब्द करते, क्षीर समुद्र में से जैसे शब्द प्रकट हो वैसे जय जय करनेवाले मंगल शब्द मुख से नीकलते थे और जिस तरह दो हाथ जुड़कर अंजलि करते थे, जिस तरह क्षीर सागर के जल से कई खुशबुदार चीज की खुशबु से सुवासित किए गए सुवर्ण मणि रत्न के बनाए हए ऊँचे कलश से जन्माभिषेक महोत्सव देव करते थे, जिस तरह जिनेश्वर ने पर्वत को चलायमान किया । जिस तरह भगवंत आँठ साल के थे फिर भी “इन्द्र व्याकरण" बनाया । जिस तरह कुमारपन बिताया, शादी करनी पड़ी । जिस तरह लोकांतिक देव ने प्रतिबोध किया । जिस तरह हर्षित सर्व देव और असुर ने भगवान की दीक्षा का महोत्सव किया, जिस तरह दिव्य मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी घोर परिषह सहन किए । जिस तरह घोर तपस्या ध्यान योग से अग्नि से चार घनघाती कर्म जला दिए । जिस तरह लोकालोक को प्रकाशीत करनेवाला केवलज्ञान उपार्जन किया, फिर से भी जिस तरह देव और असुर ने केवलज्ञान की महिमा करके धर्म, नीति, तप, चारित्र विषयक संशय पूछे । देव के तैयार किए हुए सिंहासन पर बिराजमान होकर जिस तरह श्रेष्ठ समवसरण तैयार किया । जिस तरह देव उनकी ऋद्धि और जगत की ऋद्धि दोनों की तुलना करते थे समग्र भुवन के एक गुरु महाशयवाले अरिहंत भगवंतने जहाँ जहाँ जिस तरह विचरण किया । जिस तरह आँठ महाप्रतिहार्य के सुंदर चिन्ह जिन तीर्थ में होते है । जिस तरह भव्य जीव के अनादिकाल के चिकने मिथ्यात्व के समग्र कर्म को निर्दलन करते है, जिस तरह प्रतिबोध करके मार्ग में स्थापन करके गणधर को दीक्षित करते है । और फिर महाबुद्धिवाले वो सूत्र बुनते है । जिस तरह जिनेन्द्र अनन्तगम पर्यायसमग्र अर्थ गणधर को कहते है । [५८०-५८५] जिस तरह जगत के नाथ सिद्धि पाते है, जिस तरह सर्व सुखरेन्द्र उनका निर्वाण महोत्सव करते है और फिर भगवंत की गेरमोजुदगी में शोक पाए हुए वो देव अपने गात्र को बहते अश्रुजल के सरसर शब्द करनेवाले प्रवाह से जिस तरह धो रहे थे । और फिर दुःखी स्वर से विलाप करते थे कि हे स्वामी ! हमे अनाथ बनाया । जिस तरह सुरभी गंध युक्त गोशीर्ष चंदनवृक्ष के काष्ट से सर्व देवेन्द्र ने विधिवत् भगवंत के देह का अग्निसंस्कार किया । संस्कार करने के बाद शोक पानेवाले शून्य दश दिशा के मार्ग को देखते थे । जिस तरह क्षीर-सागर में जिनेश्वर के अस्थि को प्रक्षालन करके देवलोक में ले जाकर श्रेष्ठ चंदन रस से उन अस्थि का विलेपन करके अशोकवृक्ष, पारिजात वृक्ष के पुष्प और शतपत्र सहस्त्र पत्र

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