Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 226
________________ महानिशीथ-३/-/५४९ २२५ जीनेवाला वर्णन शुरू करे तो भी पूर्ण न कर शके । इसलिए हे गौतम ! दस तरह का यतिधर्म घोर तप और संयम का अनुष्ठान आराधन वो रूप भावस्तव से ही अक्षय, मोक्ष, सुख पा शकते है । [५५०] नारकी के भव में, तिर्यंच के भव में, देवभव में या इन्द्ररूप में उसे पा नहीं शकते कि जो किसी मानव भव में पा शकते है । [५५१] अति महान बहोत चारित्रावरणीय नाम के कर्म दूर हो तब ही है गौतम ! जीव भावस्तव करने की योग्यता पा शकते है । [५५२] जन्मान्तर में उपार्जित बड़े पुण्य समूह को और मानव जन्म को प्राप्त किए बिना उत्तम चारित्र धर्म नहीं पा शकते । [५५३] अच्छी तरह से आराधन किए हुए, शल्य और दंभरहित होकर जो चारित्र के प्रभाव से तुलना न की हो वैसे अनन्त अक्षय तीन लोक के अग्र हिस्से पर रहे मोक्ष सुख पाते है । [५५४-५५६] कई भव में ईकट्ठे किए गए, ऊँचे पहाड़ समान, आँठ पापकर्म के दग को जला देनेवाले विवेक आदि गुण युक्त मानव जन्म प्राप्त किया । ऐसा उत्तम मानव जन्म पाकर जो कोई आत्महित और श्रुतानुसार आश्रव निरोध नहीं करते और फिर अप्रमत्त होकर अठ्ठारह हजार शीलांग को जो धारण नहीं करते । वो दीर्घकाल तक लगातार घोर दुःखानि के दावानल में अति उद्वेगपूर्वक शेकते हुए अनन्ती बार जलता रहता है । [५५७-५६०] अति बदबूवाले विष्टा, प्रवाही, क्षार- पित्त, उल्टी, बलखा, कफ आदि से परिपूर्ण चरबी ओर, परु, गाढ़ अशुचि, मलमूत्र, रूधिर के कीचड़वाले कढ़कढ़ करते हुए नीकलनेवाला, चलचल करते हुए चलायमान किए जानेवाला, दलदल करते हुए दलनेवाला, रझोड़ते हुए सर्व अंग इकट्ठे करके सिकुड़ा हुआ गर्भावास में कईं योनि में रहता था । नियंत्रित किए अंगवाला, हर एक योनिवाले गर्भावास में पुनः पुनः भ्रमण करता था, अब मुजे संतापउद्वेग जन्मजरा मरण गर्भावास आदि संसार के दुःख और संसार की विचित्रता से भयभीत होनेवाले ने इस समग्र भय को नष्ट करनेवाले भावस्तव के प्रभाव को जानकर उसके लिए दृढ़ पन से अति उद्यम और प्रवृत्ति करनी चाहिए । [५६१] उस प्रकार विद्याधर, किन्नर, मानव, देव असुखाले जगत ने तीन भुवन में उत्कृष्ट ऐसे जिनेश्वर की द्रव्यस्तव और भावस्तव ऐसे दो तरह से स्तुति की है । [५६२-५६९] हे गौतम! धर्म तीर्थंकर भगवंत, अरिहंत, जिनेश्वर जो विस्तारवाली ऋद्धि पाए हुए है । ऐसी समृद्धि स्वाधीन फिर भी जगत् बन्धु पलभर उसमें मन से भी लुभाए नहीं । उनका परमैश्वर्य रूप शोभायमय लावण्य, वर्ण, बल, शरीर प्रमाण, सामर्थ्य, यश, कीर्ति जिस तरह देवलोक में से च्यवकर यहाँ अवतरे, जिस तरह दुसरे भव में, उग्र तप करके देवलोक पाया । एक आदि विशस्थानक की आराधना करके जिस तरह तीर्थंकर नामकर्म बाँधा, जिस तरह सम्यक्त्व पाया । बाकी भव में श्रमणपन की आराधना की, सिद्धार्थ राजा की रानी त्रिशला को चौदह महा सपने की जिस तरह प्राप्ति हुई । जिस तरह गर्भावास में से अशुभ 10 15

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