Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 225
________________ २२४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद तरह के कई वर्णवाले आश्चर्यकारी सुन्दर पुष्प समूह से अच्छी तरह से पूजे गए, जिसमें नृत्य पूर्ण कई नाटिका से आकुल,मधुर, मृदंग के शब्द फैले हुए हो, सेंकड़ों उत्तम आशयवाले लोगो से आकुल, जिसमें जिनेश्वर भगवंत के चारित्र और उपदेश का श्रवण करवाने की कारण से उत्कंठित हुए चित्तयुक्त लोग हो, जहाँ कहने की कथाएँ, व्याख्याता, नृत्य करनेवाले, अप्सरा, गंधर्व, वाजिंत्र के शब्द, सुनाई दे रहे हो । यह बताए गुण समुहयुक्त इस पृथ्वी में सर्वत्र अपनी भुजा से उपार्जन किए गए न्यायोपार्जित अर्थ से सुवर्ण के, मणि के और रत्न के दादरवाला, उसी तरह के हजार स्तंभ जिसमें खड़े किए गए हो, सुवर्ण का बनाया हुआ भूमितल हो, ऐसा जिन्मंदिर जो बनवाए उससे भी तप और संयम कईं गुणवाले बताए है । [५३८-५४०] इस प्रकार तपसंयम द्वारा कईं भव के उपार्जन किए पापकर्म के मल समान लेप को साफ करके अल्पकाल में अनन्त सुखवाला मोक्ष पाता है । समग्र पृथ्वी पट्ट को जिनायतन से शोभायमान करनेवाले दानादिक चार तरह का सुन्दर धर्म सेवन करनेवाला श्रावक ज्यादा से ज्यादा अच्छी गति पाए तो भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं नीकल शकता। लेकिन अच्युत नाम के बारहवे देवलोक तक ही जा शकते है । [५४१-५४२] हे गौतम ! लवसत्तम देव यानि सर्वार्थसिद्ध में रहनेवाले देव भी वहाँ से च्यवकर नीचे आते है फिर बाकी के जीव के बारे में सोचा जाए तो संसार में कोई शाश्वत या स्थिर स्थान नहीं है । लम्बे काल के बाद जिसमें दुःख मिलनेवाला हो वैसे वर्तमान के सुख को सुख कैसे कहा जाए ? जिसमें अन्त में मौत आनेवाली हो और अल्पकाल का श्रेय वैसे सुख को तुच्छ माना है । समग्र नर और देव का सर्व लम्बे काल तक इकट्ठा किया जाए तो भी वो सुख मोक्ष के अनन्त हिस्से जितना भी श्रवण या अनुभव कर शके ऐसा नहीं है । [५४३-५४५] हे गौतम ! अति महान ऐसे संसार के सुख की भीतर कईं हजार घोर प्रचंड़ दुःख छिपे है । लेकिन मंद बुद्धिवाले शाता वेदनीय कर्म के उदय में उसे पहचान नहीं शकता । मणि सुवर्ण के पर्वत में भीतर छिपकर रहे लोह रोड़ा की तरह या वणिक पुत्री की तरह यह किसी अवसर का पात्र है । वहाँ ऐसा अर्थ नीकल शकता है कि जिस तरह कुलवान लज्जावाली और घुघट नीकालनेवाली वणिक पुत्री का मुँह दुसरे नहीं देख शकते वैसे मोक्ष सुख भी बयान नहीं किया जाता |] नगर के अतिथि की तरह रहकर आनेवाला भील राजमहल आदि के नगरसुख को बयान नहीं कर शकते । वैसे यहाँ देवता, असुर और मनुष्य के जगत में मोक्ष के सुख को समर्थ ज्ञानी पुरुष भी बयान नहीं कर शकते । [५४६] दीर्धकाल के बाद भी जिसका अन्त दिखाई न दे उसे पुण्य किस तरह कह शकते है । और फिर जिसका अन्त दुःख से होनेवाला हो और जो संसार की परम्परा बढ़ानेवाला हो उसे पुण्य या सुख किस तरह कह शकते है ? ५४७] वो देव विमान का वैभव और फिर देवलोक में से च्यवन हो । इन दोनों के बारे में सोचनेवाला का हृदय वाकईं वैक्रिय शरीर के मजबूती से बनाया है । वरना उसके सो टुकड़े हो जाए। [५४८-५४९] नरकगति के भीतर अति दुःसह ऐसे जो दुःख है उसे करोड़ साल

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