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महानिशीथ-३/-/५९४
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कोई संदेह हो वहाँ वहाँ उस सूत्र को फिर से सोचना । सोचकर निःशंक अवधारण करके निःसंदेह करना ।
[५९५] इस प्रकार सूत्र, अर्थ और उभय सहित चैत्यवंदन आदि विधान पढ़कर उसके बाद शुभ तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र योग, लग्न और चन्द्रबल का योग हुआ हो उस समय यथाशक्ति जगद्गुरु तीर्थंकर भगवन्त को पूजने लायक उपकरण इकट्ठे करके साधु भगवंत को प्रतिलाभी का भक्ति पूर्ण हृदयवाला रोमांचित बनकर पुलकित हुए शरीखाला, हर्षित हुए मुखारविंदवाला, श्रद्धा, संवेग, विवेक परम वैराग से और फिर जिसने गहरे राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व समान मल कलंक को निर्मूलपन से विनाश किया है वैसी, सुविशुद्ध, अति निर्मल, विमल, शुभ, विशेष शुभ इस तरह के आनन्द पानेवाले, भुवनगुरु जिनेश्वर की प्रतिमा के लिए स्थापना किये हुए दृष्टि और मानसवाला, एकाग्र चित्तवाला वाकईं में धन्य हूँ, पुण्यशाली हूँ। जिनेश्वर को वंदन करने से मैंने मेरा जन्म सफल किया है ।
__ ऐसा मानते हुए ललाट के ऊपर दो हाथ जोड़कर अंजलि की रचना करनेवाले सजीव वनस्पति बीज जन्तु आदि रहित भूमि के लिए दोनों जानुओ स्थापन करके अच्छी तरह से साफ हृदय से सुन्दर रीती से जाने हुए समजे हुए जिसने यथार्थ सूत्र अर्थ और तदुभव निःशंकित किए है ऐसा, पद-पद के अर्थ की भावना भाता हुआ, दृढ़ चारित्र, शास्त्र को जाननेवाला, अप्रमादातिशय आदि कई गुण संपत्तिवाले गुरु के साथ, साधु, साध्वी, साधर्मिक बन्धुवर्ग परिवार सहित प्रथम उसको चैत्य को जुहारना चाहिए । उसके बाद यथाशक्ति साधर्मिक बन्धु को प्रणाम करने पूर्वक अति किंमती कोमल साफ वस्त्र की पहरामणी करके उसका महा आदर करना चाहिए उनका सुन्दर सम्मान करना । इस वक्त शास्त्र के सार जिन्होंने अच्छी तरह से समझा है । ऐसे गुरु महाराज को विस्तार से आक्षेपणी निक्षेपणी धर्मकथा कहकर संसार का निर्वेद उत्पाद श्रद्धा, संवेग वर्धक धर्मोपदेश देना चाहिए ।
[५९६-५९७] उसके बाद परम श्रद्धा संवेग तत्पर बना जानकर जीवन पर्यन्त के कुछ अभिग्रह देना । जैसे कि हे देवानुप्रिय ! तुने वाकई ऐसा सुन्दर मानवभव पाया उसे सफल किया । तुझे आज से लेकर जावज्जीव हमेशा तीन काल जल्दबाझी किए बिना शान्त और एकाग्र चित्त से चैत्य का दर्शन, वंदन करना, अशुचि अशाश्वत क्षणभंगुर ऐसी मानवता का यही सार है । रोज सुबह चैत्य और साधु को वंदन न करु तब तक मुख में पानी न डालना। दोपहर के वक्त चैत्यालय में दर्शन न करूँ तब तक मध्याहन भोजन न करना । शाम को भी चैत्य के दर्शन किए बिना संध्याकाल का उल्लंघन न करना । इस तरह के अभिग्रह या नियम जीवनभर के करवाना । उसके बाद हे गौतम ! आगे बताएंगे उस (वर्धमान) विद्या से मंत्रीत करके गुरु को उसके मस्तक पर साँत गंधचूर्ण की मुष्ठि डालनी और ऐसे आशीर्वाद के वचन कहना कि इस संसार समुद्र का निस्तार करके पार पानेवाला बन ।।
वर्धमान विद्या-ॐ नमो भगवओ अरहओ सिज्झउ मे भगवती महाविजा वीरे महावीरे जयवीर सेणवीरे बदमाण वीरे जयंते अपराजिए स्वाहा ।
उपवास करके विधिवत् साधना करनी चाहिए । इस विद्या से हरएक धर्माराधना में