Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 234
________________ महानिशीथ-३/-/६०६ २३३ उसकी आशक्ति में पूर्व ग्रहण किए ज्ञान का परावर्तन करे, उसकी भी आशक्ति में ढाई हजार पंचमंगल नवकार का परावर्तन-जप करे, वो भी आत्मा आराधक है । अपने ज्ञानावरणीय कर्म खपाकर तीर्थंकर या गणधर होकर. आराधकपन पाकर सिद्धि पाते है । [६०७-६१०] हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहलाता है कि चार काल में स्वाध्याय करना चाहिए ? हे गौतम ! मन, वचन और काया से गुप्त होनेवाली आत्मा हर वक्त ज्ञानावरणीय कर्म खपाती है । स्वाध्याय ध्यान में रहता हो वो हर पल वैराग्य पानेवाला बनता है । स्वाध्याय करनेवाले को उर्ध्वलोक, अधोलोक, ज्योतिष लोक, वैमानिक लोक, सिद्धि, सर्वलोक और अलोक प्रत्यक्ष है । अभ्यंतर और बाह्य ऐसे बारह तरह के तप के लिए सम्यग्दृष्टि आत्मा को स्वाध्याय समान तप नहीं हुआ और होगा भी नहीं । [६११-६१५] एक, दो, तीन मासक्षमण करे, अरे ! संवत्सर तक खाए बिना रहे या लगातार उपवास करे लेकिन स्वाध्याय-ध्यान रहित हो वो एक उपवास का भी फल नहीं पाता। उद्गम उत्पादन एषणा से शुद्ध ऐसे आहार को हमेशा करनेवाला यदि मन, वचन, काया के तीन योग में एकाग्र उपयोग रखनेवाला हो और हर वक्त स्वाध्याय करता हो तो उस एकाग्र मानसवाले को साल तक उपवास करनेवाले के साथ बराबरी नहीं कर शकते । क्योंकि एकाग्रता में स्वाध्याय करनेवाले को अनन्त निर्जरा होती है । पाँच समिति, तीन गुप्ति, सहनशील, इन्द्रिय को दमन करनेवाला, निर्जरा की अपेक्षा रखनेवाला ऐसा मुनि एकाग्र मन से निश्चल होकर स्वाध्याय करता है । जो कोई प्रशस्त ऐसे श्रुतज्ञान को समजाते है, जो किसी शुभभाववाला उसे श्रवण करता है, वो दोनो हे गौतम ! तत्काल आश्रव द्वार बन्ध करते है । [६१६-६१९] दुःखी ऐसे एक जीव को जो प्रतिबोध देकर मोक्ष मार्ग में स्थापन करते है, वो देवता और असुर सहित इस जगत में अमारी पड़ह बजानेवाले होते है, जिस तरह दुसरी धातु की प्रधानता युक्त सुवर्ण क्रिया बिना कंचनभाव को नहीं पाता । उस तरह सर्व जीव जिनोपदेश बिना प्रतिबोध नहीं पाते । राग-द्वेष और मोह रहित होकर जो शास्त्र को जाननेवाले धर्मकथा करते है । जो यथार्थ तरह से सूत्र और अर्थ की व्याख्या श्रोता को वक्ता कहे तो कहनेवाले को एकान्ते निर्जरा हो और सुननेवाले का निर्जरा हो या न हो। [६२०] हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जावजीव अभिग्रह सहित चार काल स्वाध्याय करना । और फिर हे गौतम ! जो भिक्षु विधिवत् सुप्रशस्त ज्ञान पढ़कर फिर ज्ञानमद करे वो ज्ञानकुशील कहलाता है । उस तरह ज्ञान कुशील की कई तरह प्रज्ञापना की जाती है । [६२१-६२२] हे भगवंत ! दर्शनकुशील कितने प्रकार के होते है । हे गौतम ! दर्शनकुशील दो प्रकार के है-एक आगम से और दुसरा नोआगम से । उसमें आगम से सम्यग्दर्शन में शक करे, अन्य मत की अभिलाषा करे, साधु-साध्वी के मैले वस्त्र और शरीर देखकर दुगंछा करे । घृणा करे, धर्म करने का फल मिलेगा या नहीं, सम्यकत्त्व आदि गुणवंत की तारीफ न करना । धर्म की श्रद्धा चली जाना । साधुपन छोड़ने

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