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महानिशीथ-३/-/५०३
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से उद्विग्न बनते है । और पलभर में संसार से विरक्त मनवाला बन जाता है । या हे गौतम! दुसरा कथन करना एक ओर रखकर, लेकिन इस तरह से धर्मतीर्थंकर ऐसे श्रेष्ठ अक्षरवाला नाम है । वो तीन भुवन के बन्धु, अरिहंत, भगवंत, जीनेश्वर, धर्म तीर्थंकर को ही शोभा देता है। दुसरों को यह नाम देना शोभा नहीं देता । क्योंकि उन्होंने मोह का उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य लक्षणयुक्त कईं जन्म में छूनेवाले प्रकट किए गए सम्यग्दर्शन और उल्लास पाए हुए पराक्रम की शक्ति को छिपाए बिना उग्र कष्टदायक घोर दुष्कर तप का हंमेशा सेवन करके उच्च प्रकार के महापुण्य स्कंध समुह को उपार्जित किया है । उत्तम, प्रवर, पवित्र, समग्र विश्व के बन्धु, नाम और श्रेष्ठ स्वामी बने होते है ।
अनन्त काल से वर्तते भव की पापवाली भावना के योग से बाँधे हुए पापकर्म का छेदन करके अद्वितिय तीर्थंकर नामकर्म जिन्होंने बाँधा है । अति मनोहर, देदिप्यमान, दश दिशा में प्रकाशित, निरुपम ऐसे एक हजार और आँठ लक्षण-से शोभायमान होता है । जगत में जो उत्तम शोभा के निवास का जैसे वासगृह हो वैसी अपूर्व शोभावाले, उनके दर्शन होते ही उनकी शोभा देखकर देव और मानव अंतःकरण में आश्चर्य का अहेसास करते है, एवं नेत्र और मन में महान विस्मय और प्रमोद महसूस करते है । वो तीर्थंकर भगवंत समग्र पाप कर्म समान मैल के कलंक से मुक्त होते है । उत्तम समचतुरस्त्र संस्थान और श्रेष्ठ वजऋषभनाराच संघयण से युक्त परम पवित्र और उत्तम शरीर को धारण करनेवाले होते है ।
इस तरह के तीर्थंकर भगवंत महायशस्वी, महासत्त्वशाली, महाप्रभावी, परमेष्ठी हो वो ही धर्मतीर्थ को प्रवर्तनेवाले होते है । और फिर कहा है कि
[५०४ -५०८] समग्र मानव, देव, इन्द्र और देवांगना के रूप, कान्ति, लावण्य वो सब इकट्ठे करके उसका ढ़ंग शायद एक और किया जाए और उसकी दुसरी ओर जिनेश्वर के चरण के अंगूठे के अग्र हिस्से का करोड़ या लाख हिस्से की उसके साथ तुलना की जाए तो वो देव-देवी के रूप का पिंड़ सुर्वण के मेरू पर्वत के पास रखे गए ढ़ग की तरह शोभारहित दिखता है । या इस जगत के सारे पुरुष के सभी गुण इकट्ठे किए जाए तो उस तीर्थंकर के गुण का अनन्तवां हिस्सा भी नहीं आता । समग्र तीन जगत इकट्ठे होकर एक ओर एक दिशा में तीन भुवन हो और दुसरी दिशा में तीर्थंकर भगवन्त अकेले ही हो तो भी वो गुण में अधिक होते है इसलिए वो परम पूजनीय है । वंदनीय, पूजनीय, अर्हन्त है । बुद्धि और मतिवाले है, इसलिए उसी तीर्थंकर को भाव से नमस्कार करो ।
[५०९-५१२] लोक में भी गाँव, पुर, नगर, विषय, देश या समग्र भारत का जो जितने देश का स्वामी होता है, उसकी आज्ञा को उस प्रदेश के लोग मान्य रखते है । लेकिन ग्रामाधिपति अच्छी तरह से अति प्रसन्न हुआ हो तो एक गाँव में से कितना दे ? जिसके पास जितना हो उसमें से कुछ दे । चक्रवर्ती थोड़ा भी दे तो भी उसके कुल परम्परा से चले आते (समग्र बंधु वर्ग का) दाद्रि नष्ट होता है । और फिर वो मंत्रीपन की, मंत्री चक्रवर्तीपन की, चक्रवर्ती सुरपतिपन की अभिलाषा करता है । देवेन्द्र, जगत के यथेच्छित सुखकुल को देनेवाले तीर्थंकरपन की अभिलाषा करते है ।