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महानिशीथ-३/-/४९४
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प्रथम वर्षा की धारा का समूह शान्ति दे, उसी तरह कई जन्मान्तर में उपार्जन करके इकट्ठे किए महा-पुण्य स्वरूप तीर्थंकर नामकर्म के उदय से अरिहन्त भगवंत उत्तम हितोपदेश देना आदि के द्वारा सज्जड़ राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, दुष्ट-संकिलष्ट ऐसा परीणाम आदि से बँधे अशुभ घोर पाप कर्म से होनेवाले भव्य जीव के संताप को निर्मूल-करते है ।
सबको जानते होने से सर्वज्ञ है । कई जन्म से उपार्जन किए महापुण्य के समूह से जगत में किसी की तुलना में न आए ऐसे अखूट बल, वीर्य, ऐश्वर्य, सत्त्व, पराक्रमयुक्त देहवाले वो होते है । उनके मनोहर देदीप्यमान पाँव के अंगूठे के अग्रहिस्से का रूप इतना रूपातिशयवाला होता है कि जिसके आगे सूर्य जैसे दस दिशा में प्रकाश से (स्फुरायमान) प्रकट प्रतापी किरणों के समूह से सर्व ग्रह, नक्षत्र और चन्द्र की श्रेणी को तेजहीन बनाते है, वैसे तीर्थंकर भगवन्त के शरीर के तेज से सर्व विद्याधर, देवांगना, देवेन्द्र, असुरेन्द्र सहित देव का सौभाग्य, कान्ति, दीप्ति, लावण्य और रूप की समग्र शोभा फिखी-निस्तेज हो जाती है ।
स्वभाविक ऐसे चार, कर्मक्षय होने से ग्यारह और देव के किए उन्नीस ऐसे चौतीस अतिशय ऐसे श्रेष्ठ निरुपम और असामान्य होते है । जिसके दर्शन करने से भवतपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक, अहमिन्द्र, इन्द्रअप्सरा, किन्नर, नर विद्याधर सूर और असुर सहित जगत के जीव को आश्चर्य होता है । आश्चर्य होता है कि अरे ! हम आज तक किसी भी दिन न देखा हआ आज देखा । एक साथ इकट्ठे हए । अतुल महान अचिंत्य गुण परम आश्चर्य का समूह एक ही व्यक्ति में आज हमने देखा । ऐसे शुभ परीणाम से उस वक्त अति गहरा सतत उत्पन्न होनेवाले प्रमोदवाले हुए । हर्ष और अनुराग से स्फुरायमान होनेवाले नये परीणाम से आपस में हर्ष के वचन बोलने लगे और विहार करके भगवंत आगे चले तब अपने
आत्मा की निंदा करने लगे | आपस में कहने लगे कि वाकई हम नफरत के लायक है. अधन्य है, पुण्यहीन है, भगवंत विहार करके चले गए फिर संक्षोभ पाए हुए हृदयवाले मुर्छित हुए, महा मुसीबत से होश आया । उनके गात्र खींचने से अति शिथिल हो गए । शरीर सिकुड़ना । हाथ-पाँव फैलाना प्रसन्नता बतानी, आँख में पलकार होना । शरीर की क्रियाए-बन्ध हो गइ, न समज शके वैसे स्खलनवाले मंद शब्द बोलने लगे, मंद लम्बे हुँकार के साथ लम्वे गर्म निसाँसे छोडने लगे । अति बुद्धिशाली पुरुष ही उनके मन का यथार्थ निर्णय कर शके ।
जगत के जीव सोचने लगे कि किस तरह के तप के सेवन से ऐसी श्रेष्ठ ऋद्धि पा शकेंगे? उनकी ऋद्धिसमृद्धि की सोच से और दर्शन से आश्चर्य पानेवाले अपने वक्षःस्थल पर हस्ततल स्थापन करके मन को चमत्कार देनेवाले बड़ा आश्चर्य उत्पन्न करते थे । इसलिए हे गौतम ! ऐसे ऐसे अनन्त गुण समुह से युक्त शरीखाले अच्छी तरह से सम्मानपूर्वक ग्रहण किए गए नामवाले धर्मतीर्थ को प्रर्वतानेवाले अरिहंत भगवंत के गुण-गण समूह समान रत्ननिधान का बयान इन्द्र महाराजा, अन्य किसी चार ज्ञानवाले या महा अतिशयवाले छद्मस्थ जीव भी रात दिन हरएक पल हजारों अँबान से करोड़ो साल तक करे तो भी स्वयंभूरमण समुद्र की तरह अरिहंत के गुण को बयान नहीं कर शकते ।
क्योंकि हे गौतम ! धर्मतीर्थ प्रवर्तनवाले अरिहंत भगवंत अपरिमित गुणरत्नवाले होते