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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
स्त्री-पुरुष, नपुंसक, अन्यलिंग गृहस्थलिंग, प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध यावत् कर्मक्षय करके सिद्ध हुए-ऐसे कई तरह के सिद्ध की प्ररूपणा की है (और) अट्ठारह हजार शीलांग के आश्रय किए देहवाले छत्तीस तरह के ज्ञानादिक आचार प्रमाद किए बिना हमेशा जो आचरण करते है, इसलिए आचार्य, सर्व सत्य और शिष्य समुदाय का हित आचरण करनेवाले होने से आचार्य, प्राण के परित्याग वक्त में भी जो पृथ्वीकाय आदि जीव का समारम्भ, आचरण नहीं करते । या आरम्भ की अनुमोदना जो नहीं करके, वो आचार्य बड़ा अपराध करने के बावजूद भी जो किसी पर मन से भी पाप आचरण नहीं करते यों आचार्य कहलाते है । इस प्रकार नामस्थापना आदि कई भेद से प्ररूपणा की जाती है । (और)
जिन्हों ने अच्छी तरह से आश्रवद्वार बन्ध किए है, मन, वचन, काया के सुंदर योग में उपयोगवाले, विधिवत् स्वर-व्यंजन, मात्रा, बिन्दु, पद, अक्षर से विशुद्ध बारह अंग, श्रुतज्ञान पढ़नेवाले और पढ़ानेवाले एवं दुसरे और खुद के मोक्ष उपाय जो सोचते है-उसका ध्यान धरते है वो उपाध्याय । स्थिर परिचित किए अनन्तगम पर्याय चीज सहित द्वादशांणी और श्रुतज्ञान जो एकाग्र मन से चिन्तवन करते है, स्मरण करते है । ध्यान करते है, वो उपाध्याय इस प्रकार कईं भेद से उसकी व्याख्या करते है ।
अति कष्टवाले उग्र उग्रतर घोर तप और चारित्रवाले, कई व्रत-नियम उपवास विविध अभिग्रह विशेष, संयमपालन, समता रहित परिसह उपसर्ग सहनेवाले, सर्व दुःख रहित मोक्ष की साधना करनेवाले वो साधु भगवन्त कहलाते है । यही बात चुलिका में सोचंगे ।
एसो पंच नमोक्कारो-इन पाँच को किया गया नमस्कार क्या करेगा ? ज्ञानावरणीय आदि सर्व पापकर्म विशेष को हर एक दिशा में नष्ट करे वो सर्व पाप नष्ट करनेवाले । यह पद चूलिका के भीतर प्रथम उद्देशो कहलाए “एसो पंच नमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो' यह उद्देशक ईस तरहका है।
__ मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलं उसमें मंगल शब्द में रहे मंगल शब्द का निर्वाणसुख अर्थ होता है । वैसे मोक्ष सुख को साधने में समर्थ ऐसे सम्यग्दर्शनादि स्वरूपवाला, अहिंसा लक्षणवाला धर्म जो मुजे लाकर दे वो मंगल ।
___ और मुजे भव से-संसार से पार करे वो मंगल | या बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित ऐसे आँठ तरह के मेरे कर्म समूह को जो छाँने, विलय, नष्ट करे वो मंगल ।
यह मंगल और दुसरे सर्व मंगल में क्या विशेषता है ? प्रथम आदि में अरिहंत की स्तुति यही मंगल है । यह संक्षेप से अर्थ बताया । अब विस्तार से नीचे मुताबिक अर्थ जान लो । उस काल उस वक्त हे गौतम ! जिसके शब्द का अर्थ आगे बताया गया है। ऐसा जो कोई धर्म तीर्थंकर अरिहंत होते है, वो परम पूज्य से भी विशेष तरह से पूज्य होते है । क्योंकि वो सब यहाँ बताएंगे वैसे लक्षण युक्त होते है ।
अचिन्त्य, अप्रमेय, निरुपम जिसकी तुलना में दुसरा कोई न आ शके, श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर गुण समुह से अधिष्ठित होने की कारण से तीन लोक के अति महान, मन के आनन्द को उत्पन्न करनेवाले है । लम्बे ग्रीष्मकाल के ताप से संतप्त हुए, मयुर गण को जिस तरह