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व्यवहार- ३/६७
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[ ६७ ] जो कोई साधु गच्छ नायकपन धारण करना चाहे उसे स्थविर को पूछे बिना गच्छ नायकपन धारण करना न कल्पे स्थविर को पूछकर गच्छ नायकपन धारण करना कल्पे स्थविर आज्ञा दे तो कल्पे और आज्ञा न दे तो न कल्पे । जितने दिन वो आज्ञा रहित गच्छ नायकपन धारे तो उतने दिन का छेद या तप का प्रायश्चित् आता है ।
[६८-६९] तीन साल का पर्याय हो ऐसे श्रमण-निर्ग्रन्थ हो और फिर जो आचारसंयम, प्रवचन- गच्छ की सार संभालादिक संग्रह और पाणेसणादि उपग्रह के लिए कुशल हो, जिसका आचार खंडीत नहीं हुआ, भेदन नहीं हुआ, सबल दोष नहीं लगा, संक्लिष्ट आचार युक्त चित्तवाला नहीं, बहुश्रुत, कईं आगम के ज्ञाता, जघन्य से आचार प्रकल्प - निसीह सूत्रार्थ के धारक है ऐसे साधु को उपाध्याय पद देना कल्पे - लेकिन जो उक्त आचार आदि में कुशल नहीं है, और फिर अक्षत् आचार आदि नहीं है ऐसे श्रमण-निर्ग्रथ का तीन साल का दीक्षा पर्याय हो तो भी पदवी देना न कल्पे ।
[७०-७१] पाँच साल के पर्यायवाले श्रमण-निर्ग्रन्थ यदि आचार-संयम, प्रवचन- गच्छ की सर्व फिक्र की प्रज्ञा- उपधि आदि के उपग्रह में कुशल हो, जिसका आचार छेदन - भेदन न हो क्रोधादिक से जिसका चारित्र मलिन नहीं और फिर जो बहुसूत्री आगमाज्ञाता है और जघन्य से दसा- कप्प-व्यवहार सूत्र के धारक है उन्हें यह पद देना न कल्पे ।
[७२-७३] आठ साल के पर्यायवाले श्रमण-निर्ग्रन्थ में ऊपर के सर्व गुण और जघन्य से ठाणं, समवाओ के ज्ञाता हो उसे आचार्य से गणावच्छेदक पर्यन्त की पदवी देना कल्पे, लेकिन जिनमें उक्त गुण नहीं है उसे आचार्य आदि पदवी देना न कल्पे ।
[७४] निरुद्धवास पर्याय - (एक बार दीक्षा लेने के बाद जिसका पर्याय छेद हुआ है ऐसे) श्रमण निर्ग्रन्थ को उसी दिन आचार्य - उपाध्याय पदवी देना कल्पे, हे भगवंत ! ऐसा क्यों कहा ? उस स्थविर साधु को पूर्व के तथारूप कुल है । जैसे कि प्रतीतिकारक, दान देने में धीर, भरोसेमंद, गुणवंत, साधु बार-बार वहोरने पधारे उसमें खुशी हो और दान देने में दोष न लगाए ऐसे, घर में सबको दान देने की अनुज्ञा है, सभी समरूप से दान देनेवाले है और फिर उस कुल की प्रतीति करके - धृति करके यावत् समरूप दान करके जो निरुद्ध पर्यायवाले श्रमण निर्ग्रन्थ से दीक्षा ली उन्हे आचार्य उपाध्याय रूप से उसी दिन भी स्थापन करना कल्पे ।
[ ७५ ] निरुद्ध वास पर्याय पहले दीक्षा ली हो उसे छोड़कर पुनः दीक्षा लिए कुछ साल हुए हो ऐसे श्रमण-निर्ग्रन्थ को आचार्य उपाध्याय कालधर्म पाए तब पदवी देना कल्पे । यदि वो बहुसूत्री न हो तो भी समुचयरूप से वो आचारप्रकल्प - निसीह के कुछ अध्ययन पढ़े है और बाकी के पढूँगा ऐसा चिन्तवन करते है वो यदि पढ़े तो उसे आचार्य उपाध्याय की पदवी देना कल्पे लेकिन पढूँगा ऐसा कहकर न पढ़े तो उसे पदवी देना न कल्पे ।
[७६-७७] वो साधु जो दीक्षा में छोटे है । तरुण है । ऐसे साधु की आचार्यउपाध्याय काल कर गए हो उनके बिना रहना न कल्पे, पहले आचार्य और फिर उपाध्याय की स्थापना करके रहना कल्पे । ऐसा क्यों कहा ? वो साधु नए है- तरुण है इसलिए उसे आचार्य - उपाध्याय यादि के संग बिना रहना न कल्पे यदि साध्वी नव दीक्षित और तरुण हो तो उसे आचार्य - उपाध्याय प्रवर्तिनी कालधर्म पाए तब उनके बिना रहना न कल्पे लेकिन पहले आचार्य फिर उपाध्याय फिर प्रवर्तिनी ऐसे स्थापना करके तीनों के संग में रहना कल्पे ।