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दशाश्रुतस्कन्ध-६/३५
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चंड, रौद्र और शुद्र होता है । सोचे बिना काम करता है, साहसिक होता है, लोगों से रिश्वत लेता है । धोखा, माया, छल, कूड़, कपट और मायाजाल बनाने में माहिर होता है । वो दुःशील, दुष्टजन का परिचित, दुश्चरित, दारूण स्वभावी, दुष्टव्रती, दुष्कृत करने में आनन्दित रहता है । शील रहित, गुण प्रत्याख्यान - पौषध - उपवास न करनेवाला और असाधु होता है । वो जावज्जीव के लिए सर्व तरह के प्राणातिपात से अप्रतिविरत रहता है यानि हिंसक रहता है । उसी तरह सर्व तरह से मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह का भी त्याग नहीं करता । सर्व तरह से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दोष, कलह, आल, चुगली, निंदा, रतिअरति, माया - मृषा और मिथ्या दर्शन शल्य से जावज्जीव अविरत रहता है । यानि इस १८ पाप स्थानक का सेवन करता रहता है ।
वो सर्व तरह से स्नान, मर्दन, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला, अलंकार से यावज्जीव अप्रतिविरत रहता है, शकट, रथ, यान, युग, गिल्ली, थिल्ली, शिबिका, स्यन्दमानिका, शयन, आसन, यानवाहन, भोजन, गृह सम्बन्धी वस्त्र - पात्र आदि से यावज्जीव अप्रतिविरत रहता है । सर्व, अश्व, हाथी, गाय, भैंस, भेड़-बकरे, दास-दासी, नौकर-पुरुष, सोना, धन, धान्य, मणि-मोती, शंख, मूगा से यावज्जीवन अप्रतिविरत रहता है ।
यावज्जीव के लिए हिनाधिक तोलमाप, सर्व आरम्भ, समारम्भ, सर्वकार्य करना -करवाना, पचन- पाचन, कूटना, पीसना, तर्जन-ताड़न, वध-बन्ध, परिक्लेश यावत् वैसे तरह के सावध और मिथ्यात्ववर्धक, दुसरे जीव के प्राणो को परिताप पहुँचानेवाला कर्म करते है । यह सभी पाप कार्य से अप्रतिविरत यानि जुड़ा रहता है ।
जिस तरह कोई पुरुष कलम, मसुर, तल, मुग, उड़द, बालोल, कलथी, तुवर, काले चने, ज्वार और उस तरह के अन्य धान्य को जीव रक्षा के भाव के सिवा क्रूरता पूर्वक उपपुरुषन करते हुए मिथ्यादंड़ प्रयोग करता है । उसी तरह कोई पुरुष विशेष तीतर, वटेर, लावा, कबूतर, कपिंजल, मृग, भैंस, सुकर, मगरमच्छ, गोधा, कछुआ और सर्प आदि निर्दोष जीव को क्रूरता से मिथ्या दंड़ का प्रयोग करते है । यानि कि निर्दयता से घात करते है । और फिर उसकी जो बाह्य पर्षदा है । जैसे कि - दास, दूत, वेतन से काम करनेवाले, हिस्सेदार, कर्मकर, भोग पुरुष आदि से हुए छोटे अपराध का भी खुद ही बड़ा दंड़ देते है । इसे दंड़ दो, इसे मुंड़न कर दो, इसकी तर्जना करो - ताड़न करो, इसे हाथ में पाँव में, गले में सभी जगह बेड़ियाँ लगाओ, उसके दोनों पाँव में बेड़ी बाँधकर, पाँव की आँटी लगा दो, इसके हाथ काट दो, पाँव काट दो, कान काट दो, नाखून छेद दो, होठ छेद दो, सर उड़ा दो, मुँह तोड़ दो, पुरुष चिह्न काट दो, हृदय चीर दो, उसी तरह आँख-दाँत-मुँह, जीह्वा उखेड़ दो, इसे रस्सी से बाँधकर पेड़ पर लटका दो, बाँधकर जमीं पर घिसो, दहीं की तरह मंथन करो, शूली पर चड़ाओ, त्रिशूल से भेदन करो, शस्त्र से छिन्न-भिन्न कर दो, भेदन किए शरीर पर क्षार डालो, उसके झख्म पर घास डालो, उसे शेर, वृषभ, साँड़ की पूँछ से बाँध दो, दावाग्नि में जला दो, टुकड़े कर के कौए को माँस खिला दो, खाना-पीना बन्द कर दो, जावज्जीव के बँधन में रखो, अन्य किसी तरह से कमौत से मार डालो ।
उस मिध्यादृष्टि की जो अभ्यंतर पर्षदा है । जैसे कि माता, पिता, भाई, बहन, भार्या, पुत्री, पुत्रवधू आदि उनमें से किसी का भी थोड़ा अपराध हो तो खुद ही भारी दंड़ देते है ।