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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय में उत्पन्न होनेवाले को दुःख या सुख का अहसास नहीं होता । उन एकेन्द्रिय जीव का अनन्ताकाल परिवर्तन हो और वो बेईन्द्रियपन पाए, कुछ बेईन्द्रियपन नहीं पाते । कुछ अनादि काल के बाद पाते है ।
[२३४] शर्दी, गर्मी, वायरा, बारिस आदि से पराभव पानेवाले मृग, जानवर, पंछी, सर्प आदि सपने में भी आँख की पलक के अर्ध हिस्से की भीतर के वक्त जितना भी सुख नहीं पा शकते ।
[२३५] कठिन अनचाहा स्पर्शवाली तीक्ष्ण करवत और उसके जैसे दुसरे कठिन हथियार से चीरनेवाले, फटनेवाले, कटनेवाले, पल-पल कईं वेदना का अहेसास करनेवाले नारकी में रहे बेचारे नारक को सुख कैसे मिले ?
[२३६-२३७] देवलोक में अमरता तो सबकी समान है तो भी वहाँ एक देव वाहन बने और दुसरा (ज्यादा शक्तिवाले) देव उस पर आरोहण हो ऐसा वहाँ दुःख होता है । हाथ, पाँव, तुल्य और समान होने के बावजूद भी वो दुःख करते है कि वाकईं आत्म-बैरी बना । उस वक्त माया-दंभ करके मैं भव हार गया, धिक्कार हो मुझे, इतना तप किया तो भी आत्मा ठगित हुआ । और हल्का देवपन पाया ।
२३८-२४१] मानवपन में सुख का अर्थी खेती कर्म सेवा-चाकरी व्यापार शिल्पकला हमेशा रात-दिन करते है । उसमें गर्मी सहते है, उसमें उनको भी कौन-सा सुख है ? कुछ मूरख दुसरों के घर समृद्धि आदि देखकर दिल में जलते है । कुछ तो बेचारे पेट की भूख भी पूरी नहीं कर शकते । और कुछ लोगों की हो वो लक्ष्मी भी क्षीण होती है । पुण्य की वृद्धि हो-तो यश-कीर्ति और लक्ष्मी की वृद्धि होती है, यदि पुण्य कम होने लगे तो यश, कीर्ति और समृद्धि कम होने लगते है । कुछ पुण्यवंत लगातार हजार साल तक एक समान सुख भुगतते रहते है, जब कि कुछ जीव एक दिन भी सुख पाए बिना दुःख में काल निर्गमन करते है, क्योंकि मनुष्य ने पुण्यकर्म करना छोड़ दिया होता है ।
- [२४२] यह तो जगत के सारे जीव का आम तोर पर संक्षेप से दुःख बताया । हे गौतम ! मानव जात में जो दुःख रहा है उसे सुन ।
[२४३] हर एक समय अहेसास करनेवाले सेंकड़ो तरह के दुःख से उग पानेवाले और ऊब जानेवाले कुछ मानव वैराग्य नहीं पाते ।
२४४-२४५] संक्षेप से मानव को दो तरह का दुःख होता है, एक शारीरिक दुसरा मानसिक । और फिर दोनों के घोर प्रचंड़ और महा रौद्र ऐसे तीन-तीन प्रकार होते है । एक मुहर्त में जिसका अंत हो उसे घोर दुःख कहा है । कुछ देर बीच में विश्राम-आराम मिले तो घोर प्रचंड दुःख कहलाता है । जिसमें विश्रान्ति बिना हर एक वक्त में एक समान दुःख हमेशा सहना पड़े । उसे घोर प्रचंड़ महारौद्र कहते है ।
[२४६] मानव जाति को घोर दुःख हो । तिर्यंचगति में घोर प्रचंड़ और हे गौतम ! घोर प्रचंड महारौद्र दुःख नारक के जीव का होता है ।
[२४७] मानव को तीन प्रकार का दुःख होता है । जघन्य मध्यम उत्तम । तिर्यंच को जघन्य दुःख नहीं होता, उत्कृष्ट दुःख नारक को होता है ।
[२४०-२५०] मानव को जो जघन्य दुःख हो वो दो तरह का जानना -सूक्ष्म और