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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
कर्म बाँधे और गृहस्थ अबोधिलाभ न बाँधे । और फिर संयत मुनि इन तीन आशय से अबोधिलाभ कर्म बाँधते है । १. आज्ञा का उल्लंघन २. व्रत का भंग और ३. उन्मार्ग प्रवर्तन | [४४८] मैथुन, अप्काय और तेऊकाय इन तीन के सेवन से अबोधिक लाभ होता है । इसलिए मुनि को कोशीश करके सर्वथा इन तीनों का त्याग करना चाहिए ।
[४४९] जो आत्मा प्रायश्चित् का सेवन करे और मन में संक्लेश रखे और फिर जो कहा हो उसके अनुसार न करे, तो वो नरक में जाए ।
[४५०] हे गौतम! जो मंद श्रद्धावाला हो, वो प्रायश्चित् न करे, या करे तो भी क्लिष्ट मनवाला होकर करता है । तो उनकी अनुकंपा करना विरुद्ध न माना जाए ?
[ ४५१-४५२] हे गौतम! राजादिक जब संग्राम में युद्ध करते है, तब उसमें कुछ सैनिक घायल होते है । तीर शरीर में जाता है तब तीर बाहर नीकालने से या शल्य का उद्धार करने से उसे दुःख होता है । लेकिन शल्य का उद्धार करने की अनुकंपा में विरोध नहीं माना जाता । शल्य का उद्धार करनेवाला अनुकंपा रहित नहीं माना जाता, वैसे संसार समान संग्राम में अंगोपांग के भीतर या बाहर के शल्य-भाव शल्य रहे हो उसका उद्धार करने में अनुपम अनुकंपा भगवंत ने बताई है ।
[४५३ - ४५५] हे भगवंत ! जब तक शरीर में शल्य रहा हो तब तक जीव दुःख का अहेसास करते है, जब शल्य नीकाल देते है तब वो सुखी होते है । उसी प्रकार तीर्थंकर, सिद्धभगवंत, साधु और धर्म को धोखा देकर विपरीत बनकर जो कुछ भी उसने अकार्य आचरण किया हो उसका प्रायश्चित् करके सुखी होता है । भावशल्य दूर होने से सुखी हो, वैसे आत्मा के लिए प्रायश्चित् करने से कौन-सा गुण होगा ? वैसे बेचारे दीन पुरुष के पास दुष्कर और दुःख में आचरण किया जाए वैसे प्रायश्चित् क्यों दे ?
[ ४५६-४५७] हे गौतम ! शरीर में से शल्य बाहर नीकाला लेकिन झख्म भरने के लिए जब तक मल्हम लगाया न जाए, पट्टी न बाँधी जाए तब तक वो झख्म नहीं भरता । वैसे भावशल्य का उधार करने के बाद यह प्रायश्चित् मल्हम पट्टी और पट्टी बाँधने समान समजो | दुःख से करके रूझ लाई जाए वैसे पाप रूप झख्म की जल्द रूझ लाने के लिए प्रायश्चित् अमोघ उपाय है ।
[४५८-४६०] हे भगवंत ! सर्वज्ञ ने बताए प्रायश्चित् थोड़े से भी आचरण में, सुनने में या जानने में क्या सर्व पाप की शुद्धि होती है ? हे गौतम! गर्मी के दिनों में अति प्यास लगी हो, पास ही में अति स्वादिष्ट शीतल जल हो, लेकिन जब तक उसका पान न किया जाए तब तक तृषा की शान्ति नहीं होती उसी तरह प्रायश्चित् जानकर जब तक निष्कपट भाव से सेवन न किया जाए तब तक उस पाप की वृद्धि होती है लेकिन कम नहीं होता । [ ४६१] हे भगवंत ! क्या प्रमाद से पाप की वृद्धि होती है ? क्या किसी वक्त आत्मा सावध हो जाए और पाप करने से रुक जाए तो वो पाप उतना ही रहें या तो वृद्धि होते रूक न जाए ?
[४६२] हे गौतम! जैसे प्रमाद से साँप का डंख लगा हो लेकिन जरुरतवाले को पीछे से विष की वृद्धि हो वैसे पाप की भी वृद्धि होती है ।