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महानिशीथ - २/३/४२८
न करे और विपरीत प्ररूपणा करे उसे जुरूर मिथ्यादृष्टि समझो ।
[४२९] इस प्रकार जानकर उस पाँच का संसर्ग दर्शन, बातचीत करना, पहचान, सहवास आदि सर्व बात हित के कल्याण के अर्थी सर्व उपाय से वर्जन करना ।
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[४३०] हे भगवंत ! शील भ्रष्ट का दर्शन करने का आप निषेध करते हो और फिर प्रायश्चित् तो उसे देते हो । यह दोनों बात किस तरह संगत हो शके
[४३१] हे गौतम ! शीलभ्रष्ट आत्मा को संसार सागर पार करना काफी मुश्किल है । इसलिए यकीनन वैसे आत्मा की अनुकंपा करके उसे प्रायश्चित् दिया जाता है ।
[४३२] हे भगवंत ! क्या प्रायश्चित् करने से नरक का बँधा हुआ आयु छेदन हो जाए ? गौतम ! प्रायश्चित् करके भी कईं आत्माए दुर्गति में गई है ।
[४३३-४३४] हे गौतम! जिन्होंने अनन्त संसार उपार्जन किया है । ऐसे आत्मा यकीनन प्रायश्चित् से उसे नष्ट करते है । तो फिर वो नरक की आयु क्यों न तोड़ दे ? इस भुवन में प्रायश्चित् से किसी भी चीज असाध्य नहीं है । एक बोधिलाभ सिवा जीव को प्रायश्चित् से किसी चीज असाध्य नहीं है । यानि कि एक बार पाया हुआ बोधिलाभ हार जाए तो फिर से मिलना मुश्किल है ।
[४३५-४३६] अप्काय का परिभोग एवं अग्निकाय का आरम्भ और मैथुन सेवन अबोध लाभ - कर्म बँधानेवाले है, इसलिए उसका वर्जन करना । अबोधि बँधानेवाले मैथुन, अप्काय्, अग्निकाय का परिभाग संयत आत्माए कोशीश पूर्वक त्याग करे ।
[४३७] हे भगवंत ! उपर बताए हुए कार्य से अबोधि लाभ हो तो वो गृहस्थ हंमेशा वैसे कार्य में प्रवृत्त होते है । उन्हें शिक्षाव्रत, गुणव्रत और अणुव्रत धारण करना निष्फल माना जाए क्या ?
[४३८-४४३] हे गौतम! मोक्ष मार्ग दो तरह का बताया है । एक उत्तम श्रमण का और दुसरा उत्तम श्रावक का । प्रथम महाव्रतधारी का और दुसरा अणुव्रतधारी का । साधुओ त्रिविध त्रिविध से सर्व पाप व्यापार का जीवन पर्यन्त त्याग किया है । मोक्ष के साधनभूत घोर महाव्रत का श्रमण ने स्वीकार किया है । गृहस्थ ने परिमित काल के लिए द्विविध, एकविध या त्रिविध स्थूल पन से सावद्य का त्याग किया है, यानि श्रावक देश से व्रत अंगीकार करते है । जब कि साधुओने त्रिविध त्रिविध से मूर्च्छा, इच्छा, आरम्भ, परिग्रह का त्याग किया | पाप वोसिराकर जिनेश्वर के लिंग - चिन्ह या वेश धारण किया है । जब गृहस्थ इच्छा आरम्भ परिग्रह के त्याग किए बिना अपनी स्त्री में आसक्त रहकर जिनेश्वर के वेश को धारण किए बिना श्रमण की सेवा करते है, इसलिए है गौतम ! एकदेशसे गृहस्थ पाप त्याग व्रत पालन करते है, इसलिए उसके मार्ग की गृहस्थ को आशातना नहीं होती ।
[४४४-४४५] जिन्होंने सर्व पाप का प्रत्याख्यान किया है । पंच महाव्रत धारण किया है, प्रभु के वेश को स्वीकार किया है । वो यदि मैथुन अप्काय अग्निकाय सेवन का त्याग न करे तो उनको बड़ी आशातना बताई है । उसी कारण से जिनेश्वर इन तीन में बड़ी आशातना कहते है । इसलिए उन तीन का मन से भी सेवन के लिए अभिलाषा मत करो । [ ४४६ - ४४७] हे गौतम! काफी दृढ़ सोचकर यह कहा है कि यति अबोधिलाभ का
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