Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 215
________________ २१४ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद रहितपन प्राप्त होता है । कषाय रहितपन होने से सम्यक्त्त्व उत्पन्न होता है । सम्यक्त्त्व होने से जीवादिक चीज का ज्ञान होता है । वो होने से सर्व ममतारहितपन होता है । सभी चीजों में ममता न रहने से अज्ञान मोह और मिथ्यात्व का क्षय होता है । यानि विवेक आता है। विवेक होने से हेय और उपादेय चीज की यथार्थ सोच और एकान्त मोक्ष पाने के लिए दृढ़ निश्चय होता है । इससे अहित का परित्याग और हित का आचरण हो वैसे कार्य में अति उद्यम करनेवाला बने । उसके बाद उत्तरोत्तर परमार्थ स्वरूप पवित्र उत्तम क्षमा आदि दश तरह के, अहिंसा लक्षणवाले धर्म का अनुष्ठान करने और करवाने में एकाग्र और आसक्त चित्रवाला होता है । उसके बाद यानि कि क्षमा आदि दश तरह के और अहिंसा लक्षण युक्त धर्म का अनुष्ठान का सेवन करना और करवाना उसमें एकाग्रता और आसक्त चित्तवाले आत्मा को सर्वोत्तम क्षमा, सर्वोत्तम मृदुता, सर्वोत्तम सरलता, सर्वोत्तम बाह्य धन सुवर्ण आदि परिग्रह और काम क्रोधादिक अभ्यंतर परिग्रह स्वरूप सर्व संग का परित्याग होता है । और सर्वोत्तम बाह्य अभ्यन्तर ऐसे बारह तरह के अति घोर वीर उग्र कष्टवाले तप और चरण के अनुष्ठान में आत्मरमणता और परमानन्द प्रकट होता है । आगे सर्वोत्तम सत्तरा प्रकार के समग्र संयम अनुष्ठान परिपालन करने के लिए बद्धलक्षपन प्राप्त होता है । सर्वोत्तम सत्य भाषा बोलना, छ काय जीव का हित, अपना बल, विर्य पुरुषार्थ, पराक्रम छिपाए बिना मोक्ष मार्ग की साधना करने में कटिबद्ध हुए सर्वोत्तम स्वाध्याय ध्यान समान जल द्वारा पापकर्म समान मल के लेप को प्रक्षाल करनेवाला - धोनेवाला होता है । और फिर सर्वोत्तम अकिंचनता, सर्वोत्तम परमपवित्रता सहित, सर्व भावयुक्त सुविशुद्ध सर्व दोष रहित, नव गुप्ति सहित, १८ परिहार स्थानक से विरमित यानि १८ तरह के अब्रह्म का त्याग करनेवाला होता है । उसके बाद यह सर्वोत्तम क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शोच, आकिंचन्य, अतिदुर्घर, ब्रह्मवत् धारण करना इत्यादिक शुभ अनुष्ठान से सर्व समारम्भ का त्याग करनेवाला होता है । फिर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप स्थावर जीव दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले जीव का और अजीव काय का सरंभ, समारम्भ, आरम्भ को मन, वचन, काया के त्रिक से त्रिविध त्रिविध से श्रोत्रादि इन्द्रिय के विषय के संवरपूर्वक आहारादि चार संज्ञा का त्याग करके पाप को वोसिराता है । फिर निर्मल अठ्ठारह हजार शीलांग धारण करनेवाला होने से अस्खलित, अखंड़ित, अमलिन, अविराधित, सुन्दर उग्र उग्रतर विचित्र आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला आभिग्रह का निर्वाह करनेवाला होता है । फिर देवता, मनुष्य, तिर्यंच के किए हुए घोर परिषह उपसर्ग को समता रखकर सहनेवाले होते है । उसके बाद अहोरात्र आदि प्रतिमा के लिए महा कोशीश करनेवाला होता है । फिर शरीर की - टापटीप रहित ममतारहित होता है । शरीर निष्प्रतिक्रमणवाला होने से शुक्ल ध्यान में अड़ोलपन पाता है । फिर अनादि भव परम्परा से इकट्ठे किए समग्र आँठ तरह के कर्म राशि का क्षय

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