Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 197
________________ १९६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद मरण की बातें करे या भय बताता हो तो भी हमेशा स्वपक्ष को गुण करनेवाला खुद को या दुसरों का हित हो वैसी ही भाषा बोलनी इस तरह हितकारी वचन बोलनेवाला बोध पाए या पाए हुए बोधि को निर्मल करता है । [३३४-३३५] खुले आश्रव द्वारवाले जीव प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और रस से कर्म की चिकनाईवाले होते है । वैसी आत्मा कर्म का क्षय या निर्जरा कर शके इस तरह घोर आँठ कर्म में मल में फंसे हुए सर्व जीव को दुःख से छूटकारा किस तरह मिले ? पूर्व दुष्कृत्य पाप कर्म किए हो, उस पाप का प्रतिक्रमण न किया हो ऐसे खुद के किए हुए कर्म भुगते बिना अघोर तप का सेवन किए बिना उस कर्म से मुक्त नहीं हो शकते । [३३६-३३७] सिद्धात्मा, अयोगी और शैलेशीकरण में रहे सिवाय तमाम संसारी आत्मा हरएक वक्त कर्म बाँधते है । कर्मबंध बिना कोई जीव नहीं है । शुभ अध्यवसाय से शुभ कर्म, अशुभ अध्यवसाय से अशुभ कर्मबंध, तीव्रतर परीणाम से तीव्रतर रसस्थितिवाले और मंद परीणाम से मंदरस और अल्प स्थितिवाले कर्म उपार्जित करे । [३३८] सर्व पापकर्म इकट्ठे करने से जितना रासिढ़ग हो, उसे असंख्यात गुना करने से जितना कर्म का परिमाण हो उतने कर्म, तप, संयम, चारित्र का खंडन और विराधना करने से और उत्सूत्र मार्ग की प्ररूपणा, उत्सूत्र मार्ग की आचरणा और उसकी उपासना करने से उपार्जन होता है । [३३९] यदि सर्व दान आदि स्व-पर हित के लिए आचरण किया जाए तो अ-परिमित महा, ऊँचे, भारी, आंतरा रहित गाढ पापकर्म का ढ़ग भी क्षय हो जाए । और संयम-तप के सेवन से दीर्धकाल के सर्व पापकर्म का विनाश हो जाता है । [३४०-३४४] यदि सम्यक्त्व की निर्मलता सहित आनेवाले आश्रवद्वार बंध करके जब जहाँ अप्रमादी वने तव वहाँ वध अल्प करे और काफी निर्जरा करे, आश्रवद्वार बंध करके जब प्रभु की आज्ञा का खंडन न करे और ज्ञान-दर्शन चारित्र से दृढ़ वने तब पहले के बाँधे हुए सर्व कर्म खपा दे और अल्पस्थितिवाले कर्म वाँधे, उदय न हुए हो वैसे वैसे कर्म भी घोर उपसर्ग परिपह सहकर उदीरणा करके उसका क्षय करे और कर्म पर जय पाए । इस प्रकार आश्रव की कारण को रोककर सर्व आशातना का त्याग करके स्वाध्याय ध्यान योग में और फिर धीर वीर ऐसे तप में लीन बने, सम्पूर्ण संयम मन, वचन, काया से पालन करे तब उत्कृष्ट बंध नहीं करता और अनन्त गुण कर्म की निर्जरा करता है । [३४५-३४८] सर्व आवश्यक क्रिया में उद्यमवन्त बने हुए, प्रमाद, विषय, राग, कषाय आदि के आलम्बन रहित बाह्य अभ्यंन्तर सर्व संग से मुक्त, रागद्वेष मोह सहित, नियाणा रहित बने, विषय के राग से निवृत्त बने, गर्भ परम्परा से भय लगे, आश्रव द्वार का रोध करके क्षमादि यतिधर्म और यमनियमादि में रहा हो, उस शुक्ल ध्यान की श्रेणी में आरोहण करके शैलेषीकरण प्राप्त करता है, तब लम्बे अरसे से बाँधा हुआ समग्र कर्म जलाकर भस्म करता है, नया अल्प कर्म भी नहीं बाँधता | ध्यानयोग की अग्नि में पाँच ह्रस्वाक्षर बोले जाए उतने कम समय में भव तक टिकनेवाले समग्र कर्म को जलाकर राख कर देता है । [३४९-३५०] इस प्रकार जीव के वीर्य और सामर्थ्य योग से परम्परा से कर्म कलंक

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