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महानिशीथ - २/३/३५०
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के कवच से सर्वथा मुक्त होनेवाले जीव एक समय में शाश्वत, पीडा रहित रोग, बुढ़ापा, मरण से रहित, जिसमें किसी दिन दुःख या दाखि न देखा जाता हो । हंमेशा आनन्द का अहसास हो वैसे सुखवाला शिवालय - मोक्षस्थान पाता है ।
[३५१ - ३५३] हे गौतम! ऐसे जीव भी होते है कि जो आस्रव द्वार को बन्ध करके क्षमादि दशविध संयम स्थान आदि पाया हुआ हो तो भी दुःख मिश्रित सुख पाता है । इसलिए जब तक समग्र आँठ कर्म घोर तप और संयम से निर्मूल - सर्वथा जलाए नहीं । तब तक जीव को सपने में भी सुख नहीं हो शकता । इस जगत में सर्व जीव को पूरी विश्रान्ति बिना दुःख लगातार भुगतना होता है । एक समय भी ऐसा नहीं कि जिसमें इस जीव ने आया हुआ दु:ख समता से सहा हो ।
[३५४-३५५] कुंथुआ के जीव का शरीर कितना ? हे गौतम वो तु "यदि ” सोचे छोटे से छोटा, उससे भी छोटा उससे भी काफी अल्प उसमें कुंथु । इसका पाँव कितना ? पाँव की धार तो केवल एक छोटे से छोटा हिस्सा, उसका हिस्सा भी यदि हमारे शरीर को छू ले या किसी के शरीर पर चले तो भी हमारे दुःख की कारण न बने । लाख कुंथुआ के शरीर को इकट्ठे करके छोटे तराजु से तोल-न -नाप करके उसका भी एक पल (मिलिग्राम) न बने, तो एक कुंथु का शरीर कितना हो ? ऐसे छोटे एक कुंथुआ के पाँव की धार के हिस्से के स्पर्श को सह नहीं शकते और पादाग्र हिस्से को छूने से आगे कहे अनुसार वैसी दशा जीव सहते है । तो हे गौतम ! वैसे दुःख के समय कैसी भावना रखनी वो सुन ।
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[३५६-३६५] कुंथु समान छोटा जानवर मेरे मलीन शरीर पर भ्रमण करे, संचार करे, चले तो भी उसको खुजलाकर नष्ट न करे लेकिन रक्षण करे यह हंमेशां यहाँ नहीं रहेगा । शायद दुसरे ही पल में चला जाए, दुसरे पल में नहीं रहेगा । शायद दुसरे पल में न चला जाए तो गौतम ! इस प्रकार भावना रखनी या यह कुंथु राग से नहीं बँसा या मुज पर उसे द्वेष नहीं हुआ, क्रोध से, मत्सर से, इर्ष्या से, बैर से मुजे डँसता नहीं या क्रीड़ा करने की इच्छा से मुजे हँसता नहीं कुंथु वैर भाव से किसी के शरीर पर नहीं चड़ता वो तो किसी के भी शरीर पर ऐसे ही चड़ जाता है । विकलेन्द्रिय हो, बच्चा हो, दुसरे किसी जानवर हो, या जलता हुआ अग्नि और वावड़ी के पानी में भी प्रवेश करे । वो कभी भी यह न सोचे कि यह मेरे पूर्व का बैरी है या मेरा रिश्तेदार है इसलिए आत्मा को ऐसा सोचना चाहिए कि इसमें मेरी आशातनापाप का उदय हुआ है ।
ऐसे जीव के प्रति मैंने कौन-सी अशाता का दुःख किया होगा पूर्वभव में किए गए पाप कर्म के फल भुगतने का या उस पाप पुंज का अन्त लाने के लिए मेरे आत्मा के हित के लिए यह कौन - सा तिछ, उर्ध्व, अधो दिशा और विदिशा में मेरे शरीर पर इधर-उधर घुमता है । इस दुःख को समभाव से सहन करूँगा तो मेरे पापकर्म का अन्त होगा शायद कुंथु को शरीर पर घुमते-घुमते महावायरा की झपट लगी हो तो उस कुंथु को शारीरिक दुस्सह दुःख और रौद्र और आर्तध्यान का महादुःख वृद्धि पाए । ऐसे वक्त में सोचो कि इस कुंथुआ के स्पर्श से तुजे थोड़ा भी दुःख हुआ है वो भी तुम सह नहीं शकते और आर्त रौद्र ध्यान में चला जाता है तो उस दुःख की कारण से तू शल्य का आरम्भ करके मनोयोग, वचनयोग,