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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
सरल भाव से कईं तरह माया को निर्मथन - विनाश करके विनय आदि अंकुश से फिर मान गजेन्द्र को बँस में करे, मार्दव- सरलता समान मुसल - सॉंबिल से सेंकड़ो विषयो का चूर्ण कर देना और क्रोध-लोभ आदि मगर - मत्स्य को दूर से लड़ते हुए देखकर उसकी निंदा करे ।
[२०१-२०५] निग्रह न किया हुआ क्रोध और मान, वृद्धि पानेवाले माया और लोभ ऐसे चार समग्र कषाय अतिशय दुःख से करके उद्धर न शके वैसे शल्य आत्मा में प्रवेश करे तब क्षमा से - उपशम से क्रोध को हर ले, नम्रता से मान को जीत ले, सरलता से माया को और संतोष के लोभ को जीतना... इस प्रकार कषाय जीतकर जिसने सात भयस्थान और आठ मदस्थान का त्याग किया है, वो गुरु के पास शुद्ध आलोचना ग्रहण करने के लिए तैयार हो । जिस प्रकार दोष, अतिचार, शल्य लगे हो उस मुताबिक अपना सर्व दुश्चरित्र शंका रहित, क्षोभ रखे बिना, गुरु से निर्भय होकर निवेदन करे... भूत-प्रेत ने घैरा हो या बच्चे की तरह सरलता से बोले वैसे गुरु सन्मुख जिस मुताबिक शल्य-पाप हुआ हो उस प्रकार सब यथार्थ निवेदन करे - आलोचना करे ।
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[२०६ -२०७] पाताल में प्रवेश करके, पानी के भीतर जाकर, घर के भीतर गुप्त जगह में, रात को या अंधेरे में या माँ के साथ भी जो किया हो वो सब और उसके अलावा भी अन्य के साथ अपने दुष्कृत्य एक बार या बार-बार जो कुछ किए हो वो सब गुरु समक्ष यथार्थ कहकर बताना जिससे पाप का क्षय हो ।
[२०८] गुरु महाराज भी उसे तिर्थंकर परमात्मा की आज्ञा के अनुसार प्रायश्चित् कहे, जिससे शल्यरहित होकर असंयम का परिहार करो ।
[२०९ - २१०] असंयम पाप कहलाता है और वो कईं तरह से बताया है । वो इस प्रकार हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह । शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श ऐसे पाँच इन्द्रिय के विषय, क्रोध, मान, माया, लोभ वो चार कषाय, मन, वचन, काया ऐसे तीन दंड़ । इन पाप का त्याग किए बिना निःशल्य नहीं हो शकता ।
[२११] पृथ्वी- अप्-तेऊ, वायु वनस्पति ये पाँच स्थावर, छठ्ठे त्रस जीव या नव-दश अथवा चौदह भेद से जीव । या काया के विविध भेद से बताते कईं तरह के जीव के हिंसा ( के पाप की आलोचना करे ।)
[२१२] हितोपदेश छोड़कर सर्वोत्तम और पारमार्थिक तत्त्वभूत धर्म का मृषावचन कईं तरह का है उस मृषारूप सर्व शल्य (की आलोचना करे ।)
[२१३] उद्गम उत्पादना एषणा भेदरूप आहार पानी आदि के बयालीस और पाँच मांडली के दोष से दुषित ऐसे जो भाजन - पात्र उपकरण पानी- आहार और फिर यह सब नौ कोटी - ( मन, वचन, काया से करण, करावण, अनुमोदन) से अशुद्ध हो तो उसका भोगवटा करे तो चोरी का दोष लगे । ( उसकी आलोचना करे 1)
[२१४-२१५] दिव्यकाम, रतिसुख यदि मन, वचन, काया से करे, करवाए, अनुमोदना करे, ऐसे त्रिविध- त्रिविध से रतिसुख पाए या औदारिक रतिसुख मन से भी चिन्तवन करे तो उसे अ-ब्रह्मचारी मानो । ब्रह्मचर्य की नौ तरह की गुप्ति की जो कोई साधु या साध्वी विराधना करे या रागवाली दृष्टि करे तो वो ब्रह्मचर्य का पापशल्य पाती है । ( उसकी आलोचना करना । ) [२१६] गण के प्रमाण से ज्यादा धर्म-उपकारण का संग्रह करे, वो परिग्रह है ।
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