Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 187
________________ १८६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद "दुसरो ने ऐसा पाप किया है उसे कितनी आलोचना है' ऐसा कहकर खुद की आलोचना लेनेवाली, किसी के पास वैसे दोष का प्रायश्चित् सुना हो उस मुताबिक करे लेकिन अपने दोष का निवेदन न करे और फिर जाति आदि आँठ तरह के मद से शंकित हुई श्रमणी...(इस तरह शुद्ध आलोचना न ले) [१६४-१६५] झूठ बोलने के बाद पकड़े जाने के भय से आलोचना न ले, रस ऋद्धि शाता गारव से दुषित हुई हो और फिर इस तरह के कईं भाव दोष के आधीन, पापशल्य से भरी ऐसी श्रमणी अनन्ता संख्या प्रमाण और अनन्ताकाल से हुई है । वो अनन्ती श्रमणी कई दुःखवाले स्थान में गई हुई है । [१६६-१६७] अनन्ती श्रमणी जो अनादि शल्य से शल्यित हुई है । वो भावदोष रूप केवल एक ही शल्य से उपार्जित किए घोर, उग्र-उग्रतर ऐसे फल के कटु फूल के विरसरस की वेदना भुगतते हुए आज भी नरक में रही है और अभी भावि में भी अनन्ता काल तक वैसी शल्य से उपार्जन किए कटु फल का अहेसास करेगी । इसलिए श्रमणीओ को पलभर के लिए भी सूक्ष्म से सूक्ष्म शल्य भी धारण नहीं करना चाहिए । [१६८-१६९] धग धग ऐसे शब्द से प्रजवलित ज्वाला पंक्ति से आकुल महाभयानक भारित महाअग्नि में शरीर सरलता से जलता है...अंगार के ढ़ग में एक डूबकी लगा के फिर जल में, उसमें से स्थल में, उसमें से शरीर फिर से नदी में जाए ऐसे दुःख भुगते कि उससे तो मरना अच्छा लगे । [१७०-१७१] परमाधामी देव शस्त्र से नारकी जीव के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े कर दे, हमेशा उसे सलुकाई से अग्नि में होमे, सख्त, तिक्ष्ण करवत से शरीर फाड़कर उसमें लूणउस-साजीखार भरे इससे अपने शरीर को अति शुष्क कर दे तो भी जीने तक अपने शल्य को उतारने के लिए समर्थ नहीं हो शकता । [१७२-१७३] जव-खार, हल्दी आदि से अपना शरीर लीपकर मृतःप्राय करना सरल है । अपने हाथों से मस्तक छेदन करके रखना सरल है । लेकिन ऐसा संयम तप करना दुष्कर है, कि जिससे निःशल्य बना जाए । [१७४-१७७] अपने शल्य से दुःखी, माया और दंभ से किए गए शल्य-पाप छिपानेवाला वो अपने शल्य प्रकट करने के लिए समर्थ नहीं हो शकता । शायद कोई राजा दुश्चरित्र पूछे तो सर्वस्व और देह देने का मंजुर हो । लेकिन अपना दुश्चरित्र कहने के लिए समर्थ नहीं हो शकता...शायद राजा कहे कि तुम्हें समग्र पृथ्वी दे दूं लेकिन तुम अपना दुश्चरित्र प्रकट करो । तो भी कोई अपना दुश्चरित्र कहने के लिए तैयार न हो । उस वक्त पृथ्वी को भी तृण समान माने-लेकिन अपना दुश्चरित्र न कहे । राजा कहे कि तेरा जीवन काट देता हूँ इसलिए तुम्हारा दुश्चरित्र कहो । तब प्राण का क्षय हो तो भी अपना दुश्चरित्र नहीं कहते । सर्वस्व हरण होता है, राज्य या प्राण जाए तो भी कोई अपना दुश्चरित्र नहीं कहते । मैं भी शायद पाताल-नरक में जाऊँगा लेकिन मेरा दुश्चरित्र नहीं कहूँगा । [१७८-१७९] जो पापी-अधम बुद्धिवाले एक जन्म का पाप छिपानेवाले पुरुष हो वो स्व दुश्चरित्र गोपते है | वो महापुरुष नहीं कहलाते । चरित्र में सत्पुरुष उसे कहा है कि जो शल्य रहित तप करने में लीन हो ।

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