________________
महानिशीथ-१/-/१८०
१८७
[१८०-१८३] आत्मा खुद पाप-शल्य करने की इच्छावाला न हो और अर्धनिमिष आँख के पलक से भी आधा वक्त जितने काल में अनन्त गुण पापभार से तूट जाए तो निर्दभ और मायारहित का ध्यान, स्वाध्याय, घोर तप और संयम से वो अपने पाप का उसी वक्त उद्धार कर शकते है । निःशल्यपन से आलोचना करके, निंदा करके, गुरु साक्षी से गहाँ करके उस तरह का दृढ़ प्रायश्चित् करे जिससे शल्य का अन्त आ जाए । दुसरे जन्म में पूरी तरह उपार्जन किए और आत्मा में दृढ़ होकर क्षेत्रीभूत हुए, लेकिन पलक या अर्ध पलक में क्षणमुहूर्त या जन्म पूरा होने तक जुरुर पाप शल्य का अन्त करनेवाला होता है ।
[१८४-१८५] वो वाकई सुभट है, पुरुष है, तपस्वी है, पंड़ित है, क्षमावाला है, इन्द्रिय को बँस मे करनेवाला, संतोषी है । उसका जीवन सफल है...वो शूरवीर है, तारीफ करने के लायक है । पल-पल दर्शन के लायक है कि जिसने शुद्ध आलोचना करने के लिए तैयार होकर अपने अपराध गुरु के पास प्रकट करके अपने दुश्चरित्र को साफ बताया है ।
[१८६-१८९] हे गौतम ! जगत में कुछ ऐसे प्राणी-जीव होते है, जो अर्धशल्य का उद्धार करे और माया, लज्जा, भय, मोह की कारण से मृषावाद करके अर्धशल्य मन में रखे...हीन सत्त्ववाले ऐसे उनको उससे बड़ा दुःख होता है । अज्ञान दोष से उनके चित्त में शल्य न उद्धरने की कारण से भावि में जुरुर दुःखी होगा ऐसा नहीं सोचते । जिस तरह किसी के शरीर में एक या दो धारवाला शल्य-काँटा आदि घुसने के बाद उसे बाहर न नीकाले तो वो शल्य एक जन्म में, एक स्थान में रहकर दर्द दे या वो माँस समान बन जाए । लेकिन यदि पाप शल्य आत्मा में घुस जाए तो, जिस तरह असंख्य धारखाला वज्र पर्वत को भेदना है उसी तरह यह शल्य असंख्यात भव तक सर्वांग को भेदता है ।
[१९०-१९२] हे गौतम ! ऐसे भी कुछ जीव होते है कि जो लाख भव तक स्वाध्याय-ध्यान-योग से और फिर घोर तप और संयम से, शल्य का उद्धार करके दुःख और क्लेश से मुक्त हुए फिर से दुगुने-तीगुने प्रमाद की कारण से शल्य से पूर्ण होता है । और फिर कई जन्मान्तर जाए तब तप से जला देनेवाले कर्मवाला शल्योद्धार करने के लिए सामर्थ्य पा शकता है ।
[१९३-१९६] उस प्रकार फिर से भी शल्योद्धार करने की सामग्री किसी भी तरह पाकर, जो कोई प्रमाद के बँस में होता है । वो भवोभव के कल्याण प्राप्ति के सर्व साधन हर तरह से हार जाता है । प्रमादरूपी चोर कल्याण की समृद्धि लूँट लेता है । हे गौतम ! ऐसे भी कुछ जीव होते है कि जो प्रमाद के आधीन होकर घोर तप का सेवन करने के बावजूद भी सर्व तरह से अपना शल्य छिपाते है । लेकिन वो यह नहीं जानते कि यह शल्य उसने किससे छिपाया ? क्योंकि पाँच लोकपाल, अपनी आत्मा और पाँच इन्द्रिय से कुछ भी गुप्त नहीं है । सुर और असुर सहित इस जगत में पाँच बड़े लोकपाल आत्मा और पाँच इन्द्रिय उन ग्यारह से कुछ भी गुप्त नहीं है ।
[१९७] हे गौतम ! चार गति समान संसार में मृगजल समान संसार के सुख से ठगित, भाव दोष समान शल्य से धोखा खाता है और संसार में चारो गति में घुमता है ।
[१९८-२००] इतना विस्तार से कहा समजकर दृढ़ निश्चय और दिल से धीरज रखनी चाहिए । और फिर महा उत्तम सत्व समान भाले से माया राक्षसी को भेदना चाहिए । कई