________________
दशाश्रुतस्कन्ध- १०/१०६
१६५
धर्म के लिए तत्पर होती है, परिषह सहन करती है, उसे कदाचित् कामवासना का प्रबल उदय हो जाए तो वह तप संयम की उग्र साधना से उसका शमन करे । यदी उस समय (पूर्ववर्णित ) उग्रवंशी या भोगवंशी पुरुष को देखे यावत् वह निदान करे कि स्त्री का जीवन दुःखमय है, क्योंकि गांव यावत् सन्निवेश में अकेली स्त्री जा नहीं शकती । जिस तरह आम, बिजोरु, अम्बाडग इत्यादि स्वादिष्ट फल की पेशी हो, गन्ने का टुकडा या शाल्मली फली हो, तो अनेक मनुष्य के लिए वह आस्वादनीय यावत् अभिलषीत होता है, उसी तरह स्त्री का शरीर भी अनेक मनुष्यो के लिए आस्वादनीय... यावत्... अभिलषीत होता है । इसीलिए स्त्री का जीवन दुःखमय और पुरुष का जीवन सुखमय होता है ।
हे आयुष्मान श्रमणो ! यदी कोई निर्ग्रन्थी पुरुष होने के लिए निदान करे, उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना काल करे तो पूर्ववर्णन अनुसार देव बनकर... यावत्... पुरुष बन भी शकती है । उसे धर्मश्रवण प्राप्त भी होता है, लेकिन सुनने की अभिलाषा नहीं होती... यावत्... वह दक्षिण दिशावर्ती नरक में उत्पन्न होता है ।
यहीं है उस निदान का फल, जिससे धर्मश्रवण नहीं हो शकता ( यह हुआ चौथा "निदान”)
[१०७ ] हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म बताया है । यहीं निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है... यावत्... (प्रथम "निदान" समान जान लेना ।) कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी धर्मशिक्षा लिए तत्पर होकर विचरण करते हो, क्षुधादि परीषह सहते हो, फिर भी उसे कामवासना का प्रबल उदय हो जाए, तब उसके शमन के लिए तप संयम की उग्र साधना से प्रयत्न करे । उस समय मनुष्य सम्बन्धी कामभोगो से विरती हो जाए, जैसे कि मनुष्य सम्बन्धी कामभोग अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, सडन- गलन- विध्वंसक है । मल, मूत्र, श्लेष्म, मेल, वात, कफ, पित्त, शुक्र और रुधीर से उत्पन्न हुए है । दुर्गन्धयुक्त श्वासोच्छ्वास और मल-मूत्र से परिपूर्ण है । वात, पित्त, कफ के द्वार है । पहले या बाद में अवश्य त्याज्य है । देवलोक में देव अपनी एवं अन्य देवीओ को स्वाधीन करके या देवीरूप विकुर्वित करके कामभोग करते है । यदि मेरे सुचरित तप-नियम- ब्रह्मचर्य का कोई फल हो तो इत्यादि पहले निदान समान
जानना ।
हे आयुष्मान् श्रमणो ! निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी इस निदानशल्य की आलोचना किए बिना काल करे... यावत् देवलोक में भी उत्पन्न होवे यावत् वहां से च्यव कर पुरुष भी होवे, उसे केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने को भी मिले, किन्तु उसे श्रद्धा से प्रतीति नहीं होती... यावत्... वह दक्षिणदिशावर्ती नरक में नारकी होता है । भविष्य में दुर्लभबोधि होता है ।
हे आयुष्मान् श्रमणो ! यही है उस निदान शल्य का फल कि उनको धर्म के प्रति श्रद्धा-प्रीति या रुचि नहीं होती (यह है पांचवां 'निदान' )
[१०८ ] हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरुपण किया है । ( शेष सर्व कथन प्रथम "निदान" के समान जानना ।) देवलोक में जहां अन्य देव-देवी के साथ कामभोग सेवन नहीं करते, किन्तु अपनी देवी के साथ या विकुर्वित देव या देवी के साथ कामभोग सेवन करते है । यदि मेरे सुचरित तप आदि का फल हो तो... ( इत्यादि प्रथम निदान वत्) ऐसा व्यक्ति केवलि प्ररूपित धर्म में श्रद्धा-प्रीति रुचि नहीं करते, क्योंकि वह अन्य दर्शन में