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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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कैसा शील धारण किया है ? मैंने क्या दान दिया है ?
[७-९] कि जिसके प्रभाव से मैं हीन, मध्यम या उत्तम कुल में स्वर्ग या मानव लोक में सुख और समृद्धि पा शकू ? या विषाद करने से क्या फायदा ? आत्मा को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, मेरा दुश्रचरित्र और मेरे दोष एवं गुण है वो सब मैं जानता हूँ । इस तरह घोर अंधकार से भरपूर ऐसे पाताल नर्क में ही मै जाऊँगा कि जहाँ लम्बे अरसे तक हजारो दुःख मुझे सहने पड़ेंगे ।
[१०-११] इस तरह सर्व जीव धर्म-अधर्म, सुख-दुःख आदि जानते है । गौतम ! उसमें कुछ प्राणी ऐसे होते है कि जो आत्महित करनेवाले धर्म का सेवन मोह और अज्ञान की कारण से नहीं करते । और फिर परलोक के लिए आत्महित रूप ऐसा धर्म यदि कोई माया- दंभ से करेगा तो भी उसका फायदा महसूस नहीं करेगा ।
[१२-१४] यह आत्मा मेरा ही है । मैं मेरे आत्मा को यथार्थ तरह से जानता हूँ । आत्मा की प्रतीति करना दुष्कर है । धर्म भी आत्म साक्षी से होता है । जो जिसे हितकारी या प्रिय माने वो उसे सुन्दर पद पर स्थापन करते है । (क्योंकि) शेरनी अपने क्रूर बच्चे को भी ज्यादा प्रिय मानती है । जगत् के सर्व जीव " अपनी तरह ही दुसरे की आत्मा है", इस तरह सोचे बिना आत्मा को अनात्मा रूप से कल्पना करते हुए अपने दुष्ट वचन, काया, मन से चेष्टा सहित व्यवहार करता है... जब वो आत्मा निर्दोष कहलाती है । जो कलुषता रहित है । पक्षपात को छोड़ दिया है । पापवाले और कलुषित दिल जिससे काफी दूर हुए है । और दोष समान जाल से मुक्त है ।
[१५-१६] परम अर्थयुक्त, तत्त्व स्वरूप में सिद्ध हुए, सद्भूत चीज को साबित कर देनेवाले ऐसे, वैसे पुरुषो ने किए अनुष्ठान द्वारा वो (निर्दोष) आत्मा खुद को आनन्दित करता है । वैसे आत्मा में उत्तमधर्म होता है उत्तम तप संपत्ति-शील चारित्र होते है इसलिए वो उत्तम गति पाते है ।
[१७-१८] हे गौतम ! कुछ ऐसे भी प्राणी होते है कि जो इतनी उत्तम कक्षा तक पहुँचे हो, लेकिन फिर भी मन में शल्य रखकर धर्माचरण करते है, लेकिन आत्महित नहीं समझ शकते । शल्यसहित ऐसा जो कष्टदायक, उग्र, घोर, वीर कक्षा का तप देवताई हजार साल तक करे तो भी उसका वो तप निष्फल होता है ?
[१९] जिस शल्य की आलोचना नहीं होती । निंदा या गहीं नहीं की जाती या शास्त्रोक्त प्रायश्चित् नहीं किया जाता । तो वो शल्य भी पाप कहलाता है ।
[२०] माया, दंभ, छल करने के उचित नहीं है । बड़े-गुप्त पाप करना, अजयणा अनाचार सेवन करना, मन में शल्य रखना, वो आँठ कर्म का संग्रह करवाता है ।
[२१-२६] असंयम, अधर्म, शील और व्रत रहितता, कषाय सहितता, योग की अशुद्ध यह सभी सुकृत पुण्य को नष्ट करनेवाले और पार न पा शके वैसी दुर्गति में भ्रमण करवानेवाले हो और फिर शारीरिक मानसिक दुःख पूर्ण अंत रहित संसार में अति घोर व्याकुलता भुगतनी पड़े, कुछ को रूप की बदसूरती मिले, दारिद्रय, दुर्भगता, हाहाकार करवानेवाली वेदना, पराभाव पानेवाला जीवित, निर्दयता, करुणाहीन, क्रुर, दयाहीन, निर्लज्जता, गूढ़हृदय, वक्रता, विपरीत चितता, राग, द्वेष, मोह, घनघोर मिथ्यात्व, सन्मार्ग का नाश, अपयश प्राप्ति, आज्ञाभंग,