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दशाश्रुतस्कन्ध-१०/१०२
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देवलोक की देवी को तो नहीं देखा, किन्तु यह साक्षात् देवी है । यदी हमारे सुचरित तप-नियम और ब्रह्मचर्य का कोई कल्याणकारी फल हो तो हम भी आगामी भव में ऐसे ही भोगो का सेवन करे ।
[१०३] श्रमण भगवान महावीरने बहुत से साधु-साध्वीओ को कहा-श्रेणिक राजा और चेलणा रानी को देखकर क्या-यावत्-इस प्रकार के अध्यवसाय आपको उत्पन्न हुए...यावत्...क्या यह बात सही है ?
हे आयुष्यमान श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, श्रेष्ठ है, सिद्धि-मुक्ति, निर्याण और निर्वाण का यही मार्ग है, यही सत्य है, असंदिग्ध है, सर्व दुःखो से मुक्तिदिलाने का मार्ग है । इस सर्वज्ञ प्रणित धर्म के आराधक-सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करके सब दुःखो का अंत करते है ।
जो कोई निर्ग्रन्थ केवलि प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर शीतगर्मी आदि सब प्रकार के परिषह सहन करते हए यदी कामवासना का प्रबल उदय होवे तो उद्दित कामवासना के शमन का प्रयत्न करे । उस समय यदी कोई विशुद्ध जाति, कुलयुक्त किसी उग्रवंशीय या भोगवंशीय राजकुमार को आते देखे, छत्र, चामर, दास, दासी, नोकर
आदि के वृन्द से वह राजकुमार परिवेष्टित हो, उसके आगे आगे उत्तम अश्व, दोनो तरफ हाथी, पीछे पीछे सुसज्जित रथ चल रहा हो ।
___कोई सेवक छत्रधरे हुए, कोई झारी लिए हुए, कोई विंझणा तो कोई चामर लिए हुए हो, इस प्रकार वह राजकुमार बारबार उनके प्रासाद में आता-जाता हो, देदीप्यमान कांतिवाला वह राजकुमार स्नान यावत् सर्व अलंकारो से विभूषित होकर पूर्ण रात्रि दीपज्योति से झगझगायमान् विशाल कुटागार शाला के सर्वोच्च सिंहासन पर आरूढ हुआ हो यावत् स्त्रीवृन्द से घीरा हुआ, कुशल पुरुषो के नृत्य देखता हुआ, विविध वाजिंत्र सुनता हुआ, मानुषिक कामभोगो का सेवन करके विचरता हो, कोई एक सेवक को बुलाए तो चार, पांच सेवक उपस्थित हो जाते हो, उनकी सेवा के लिए तत्पर हो...
यह सब देखकर यदी कोई निर्ग्रन्थ ऐसा निदान करे कि मेरे तप, नियम, ब्रह्मचर्य का अगर कोई फल हो तो मैं भी उस राजकुमार की तरह मानुषिक भोगो का सेवन करूं । हे आयुष्मान् श्रमणो! अगर वह निर्ग्रन्थ निदान करके उस निदानशल्य की आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना मरकर देवलोक में महती ऋद्धिवाला देव भी हो जाए, देवलोक से च्यवन करके शुद्ध जातिवंश के उग्र या भोगकुल में पुत्ररूप से जन्म भी ले, सुकुमाल हाथ-पांव यावत् सुन्दररूपवाला भी हो जाए...यावत्...यौवन वय में पूर्व वर्णित सब कामभोगकी प्राप्त करले-यह सब हो शकता है ।
-किन्तु-जब उसको कोई केवलि प्ररूपित धर्म का उपदेश देता है, तब वह उपदेश को प्राप्त तो करता है, लेकिन श्रद्धापूर्वक श्रवण नहीं करता क्योंकि वह धर्मश्रण के लिए अयोग्य है । वह अनंत इच्छावाला, महारंभी, महापरिग्रही, अधार्मिक यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में नैरयिक होता है और भविष्य में वह दुर्लभबोधि होता है ।।
-हे आयुष्मान् श्रमणो ! यह पूर्वोक्त निदानशल्य का ही विपाक है । इसीलिए वह धर्म श्रवण नहीं करता । (यह हुआ पहला “निदान")