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दशाश्रुतस्कन्ध- १०/९५
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विघ्नशमन के लिए ललाट पर तिलक किया, दुःस्वप्न दोष निवारणार्थ प्रायश्चितादि विधान किये, गले में माला पहनी, मणि-रत्नजडित सुवर्ण के आभूषण धारण किये, हार-अर्धहारत्रिसरोहार पहने, कटिसूत्र पहना, सुशोभीत हुआ । आभुषण और मुद्रिका पहनी... यावत् कल्पवृक्ष के सदृश वह नरेन्द्र श्रेणिक अलंकृत और विभूषित हुआ । ... यावत्... चन्द्र के समान प्रियदर्शी नरपति श्रेणिक बाह्य उपस्थानशाला के सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा । अपने कौटुम्बिकपुरुषो को बुलाकर कहा
हे देवानुप्रियो ! राजगृह नगरी के बाहर जो बगीचें, उद्यान, शिल्पशाला, धर्मशाला, देवकुल, सभा, प्याउं, दुकान, मंडी, भोजनशाला, व्यापार केन्द्र, शिल्प केन्द्र, वनविभाग इत्यादि सभी स्थानो में जाकर मेरे सेवको को निवेदन करो श्रेणिक भिभिंसारकी यह आज्ञा है कि जब आदिकर तीर्थंकर यावत् सिद्धिगति के इच्छुक श्रमण भगवान् महावीर विचरण करते हुए-संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यहां पधारे, तब भगवान् महावीर को उनकी साधना के अनुकूल स्थान दिखाना यावत् रहने की अनुज्ञा प्रदान करना ।
तब वह प्रमुख राज्याधिकारी, श्रेणिकराजा के इस कथन से हर्षित हृदय होकर ... यावत्... श्रेणिक राजा की आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार करके राजमहल से नीकले, नगर के बाहर बगीचा... यावत्... सभी स्थानो के सेवको को राजा श्रेणिक की आज्ञा से अवगत कराया और फिर वापस आ गए ।
[९६] उस काल उस समय में धर्म के आदिकर तीर्थंकर श्रमम भगवान् महावीर विचरण करते हुए... यावत्... गुणशील चैत्य में पधारे । उस समय राजगृह नगर के तीन रस्ते, चार रस्ते, चौक में होकर... यावत्... पर्षदा नीकली... यावत्... पर्युपासना करने लगी । श्रेणिक राजा के सेवक अधिकारी श्रमण भगवान् महावीर के पास आये, प्रदक्षिणा दी, वन्दन - नमस्कार किया... यावत्... एक दुसरे से कहने लगे कि जिनका नाम व गोत्र सुनकर श्रेणिक राजा हर्षित - संतुष्ट यावत् प्रसन्न हो जाता है, वे श्रमण भगवान महावीर विचरण करते हुए... यावत् ... यहां पधारे है । इसी राजगृही नगरी के बाहर गुणशील चैत्य में तप और संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए रहे है ।
हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा को इस वृतान्त का निवेदन करो । परस्पर एकत्रित होकर वे राजगृही नगरी में यावत् श्रेणिक राजा के पास आकर बोले कि हे स्वामी ! जिनके दर्शन की अभिलाषा करते है वे श्रमण भगवान् महावीर गुणशील चैत्य में - यावत् बिराजीत है । यह संवाद आप को प्रिय हो, इसीलिए हम आपको निवेदीत करते है ।
[९७] उस समय राजा श्रेणिक इस संवाद को सुनकर - अवधारीत कर हृदय से हर्षित एवं संतुष्ट हुआ यावत् सिंहासन से उठकर सात-आठ कदम चलके वन्दन- नमस्कार किए । उन सेवको को सत्कार सन्मान करके प्रितीपूर्वक आजीविका योग्य विपुलदान देकर विदा किए । नगररक्षको को बुलाकर कहा कि आप शीघ्र ही राजगृह नगर को बहार से और अंदर से परिमार्जित करो - जल से सिंचित् करो ।
[९८] उसके बाद श्रेणिक राजाने सेनापति को बुलाकर कहा शीघ्र ही रथ, हाथी, घोडा एवं योद्धायुक्त चतुरंगिणी सेना को तैयार करो यावत् मेरी यह आज्ञापूर्वक कार्य हो जाने का निवेदन करो । उसके बाद राजा श्रेणिक ने यानशाला के अधिकारी को बुलाकर श्रेष्ठ धार्मिक
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