Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 167
________________ १६६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद रुचिवान् होता है । वह तापस, तांत्रिक, अल्पसंयत या हिंसा से अविरत होते है । मिश्रभाषा बोलते है-जैसे कि मुझे मत मारो दुसरे को मारो इत्यादि । वह स्त्री सम्बन्धी कामभोगो में मूर्छित, ग्रथित, गृद्ध, आसक्त यावत मरकर किसी असुर लोक में किल्बिषिक देव होता है । वहां से च्यव कर भेड-बकरो की तरह गुंगा या बहेरा होता है । हे आयुष्मान् श्रमणो ! यह इसी निदान का फल है कि वे केवलि प्ररूपित धर्म में श्रद्धा-प्रीति नहीं रखते । (यह हुआ छठा “निदान") [१०९] हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरुपण किया है...यावत्...जो स्वयं विकुर्वित देवलोक में कामभोग का सेवन करते है । (यहां तक सब कथन पूर्व सूत्र-१०८ के अनुसार जानना) हे आयुष्मान् श्रमणो ! कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी ऐसा निदान करके बिना आलोचना-प्रतिक्रमण किए यदि काल करे...यावत्...देवलोक में उत्पन्न होकर अन्य देव-देवी के साथ काम भोग सेवन न करके स्वयं विकुर्वित देव-देवी के साथ ही भोग करे...वहाँ से च्यव कर किसी अच्छे कुल में उत्पन्न भी हो जाए, तब उसे केवलि प्ररूपित धर्म में श्रद्धाप्रीति-रूचि तो होती है लेकिन वह शीलव्रत-गुणव्रत-प्रत्याख्यान-पौषधोपवास नहीं करते । वह दर्शनश्रावक हो शकता है । जीव-अजीव के स्वरूप का यथार्थ ज्ञाता भी होता है...यावत्...अस्थिमज्जावत् धर्मानुरागी भी होता है । हे आयुष्मान् श्रमण ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही जीवन में इष्ट है, यही परमार्थ है, शेष सर्व निरर्थक है, इस तरह अनेक वर्षों तक आगार धर्म की आराधना भी करे, मरकर किसी देवलोक में उत्पन्न भी होवें । लेकिन शीलव्रत आदि धारण न करे यह है इस निदान का फल। (यह हुआ सातवां “निदान") [११०] हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है...(शेष कथन प्रथम निदान समान जानना ।) मानुषिक विषयभोग अधुव...यावत्...त्याज्य है । दिव्यकाम भोग भी अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत एवं अस्थिर है । जन्म मरण बढानेवाले है । पहले या पीछे अवश्य त्याज्य है । यदि मेरे तप-नियम-ब्रह्मचर्य का कोई फल हो तो मैं विशुद्ध जाति-कुल में उत्पन्न होकर उग्र या भोगवंशी कुलिन पुरुष श्रमणोपासक बनु, जीवाजीव स्वरूप को जानु....यावत्...प्रासुक अशन, पान, खादिम-स्वादिम प्रतिलाभित करके विचरण करु । हे आयुष्मान् श्रमणो ! यदि कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी इस प्रकार से निदान करे, आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल करे, तो यावत् देवलोक में देव होकर-ऋद्धिमंत श्रावक भी हो जाए, केवलिप्रज्ञप्त धर्म का भी श्रवण करे, शीलव्रत-पौषध आदि भी ग्रहण करे, लेकिन वह मुंडित होकर प्रवजित नहीं हो शकता । श्रमणोपासक होकर...यावत्...प्रासुक एषणीय अशनादि प्रतिलाभित करके बरसों तक रहता है । अनशन भी कर शकता है, आलोचना प्रतिक्रमण करके समाधि भी प्राप्त करे...यावत्...देवलोक में भी जाए । हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का यह पापरूप विपाक है कि वह अनगार प्रवज्या ग्रहण नहीं कर शकता । (यह है आठवां “निदान") [१११] हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का निरूपण किया है...यावत्... (पहले निदान के समान सब कथन करना) मानुषिक...दिव्य कामभोग... भव परंपरा बढानेवाले है । यदि मेरे सुचरित तप-नियम-ब्रह्मचर्य का कोई फल विशेष हो तो मैं भी भविष्य में अन्त,

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