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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
प्रायश्चित् आता है । अर्थात् वर्तमान प्रणाली अनुसार दैवसिक में लोगस्स दो एक-एक, रात्रि लोगस्स एक-एक, पकिख में १२ लोगस्स, चौमासी में २० लोगस्स और संवत्सरी में ४० लोगस्स पर एक नवकार प्रमाण काऊस्सग्ग प्रायश्चित् जानना ।
[२२] सूत्र के उद्देश- समुद्देश- अनुज्ञा में २७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण, सूत्र पठवण के लिए (सज्झाय परठवते हुए) आँठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण (१ नवकार प्रमाण ) काऊस्सग्ग प्रायश्चित् जानना चाहिए ।
( अब तप प्रायश्चित् के सम्बन्धित गाया बताते है ।)
[२३-२५] ज्ञानाचार सम्बन्धी अतिचार ओघ से और विभाग से दो तरह से है । विभाग से उद्देशक, अध्ययन, श्रुतस्कंध, अंग यह परिपाटी क्रम है । उस सम्बन्ध से का अतिक्रमण आदि आठ अतिचार है-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिण्हवण, व्यंजन, अर्थ, तदुभय आठ आचार में जो अतिक्रमण वह ज्ञानाचार सम्बन्धी अतिचार, उसमें अनागाढ़ कारण से उद्देशक अतिचार के लिए एक नीवि, अध्ययन अतिचार में पुरिमढ, श्रुतस्कन्ध अतिचार के लिए एकासणा, अंग सम्बन्धी अतिचार के लिए आयंबिक तप प्रायश्चित् आता है । आगाढ़ कारण हो तो यही दोष के लिए पुरिमड्ढ से अठ्ठम पर्यन्त तप प्रायश्चित् है । वो विभाग प्रायश्चित् और ओध से किसी भी सूत्र के लिए उपवास तप प्रायश्चित् और अर्थ से अप्राप्त या अनुचित को वाचनादि देने में भी उपवास तप ।
[२६] काल- अनुयोग का प्रतिक्रमण न करे, सूत्र, अर्थ या भोजन भूमि का प्रमार्जन न करे, विगई त्याग न करे, सूत्र - अर्थ निषद्या न करे तो एक उपवास तप प्रायश्चित् । [२७] जोग दो प्रकार से है- आगाढ़ और अणागाढ़ दोनों के दो भेद है । सर्वसे और देशसे । सर्वसे यानि आयंबिल और देशसे यानि काउस्सग करके विगई ग्रहण करना वो । यदि आगाढ़ जोग में आयंबिल तूट जाए तो दो उपवास और देश भंग में एक उपवास, अणागाढ़ में सर्वभंगे दो उपवास और देशभंगे आयंबिल तप ।
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[२८] शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, मूढ़दृष्टि, अनुपबृंहणा, अस्थिरिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना यह आठ दर्शनातिचार का सेवन देशसे यानि कि कुछ अंश में करनेवाले को एक उपवास तप, मिथ्यात्व की वृद्धि के लिए एक उपवास ऐसे ओघ प्रायश्चित् मानना और शंका आदि आठ विभाग देशसे सेवन करनेवाले साधु को पुरिमड्ढ, रत्नाधिको एकासणा, उपाध्याय को आयंबिल, आचार्य को उपवास तप प्रायश्चित् जानना ।
[२९-३०] ...उस प्रकार प्रत्येक साधु को उपबृंहणा - संयम की वृद्धि पुष्टि आदि न करनेवाले को पुरिमड्ड आदि उपवास पर्यन्त प्रायश्चित् तप आता है और फिर परिवार की सहाय निमित्त से पासत्था, अवसन्न- कुशील आदि का ममत्त्व करनेवाले को, श्रावक आदि की परिपालना करनेवाले को या वात्सल्य रखनेवाले को निवि-पुरिमड्ड आदि प्रायश्चित् तप आता है । यहाँ यह साधर्मिक को संयमी करना या कुल संघ- गण आदि की फिक्र या तृप्ति करे ऐसी बुद्धि से सर्व तरह से निर्दोष पन से ममत्व आदि आलम्बन होना चाहिए ।
[३१] एकेन्द्रिय जीव को संघट्टन करते नीवितप, इन जीव को परिताप देना या गाढ़तर संचालन से उपद्रव करना वो अणागाढ़ और आगाढ़ दो भेद से बताया अणागाढ़ की कारण से ऐसा करने से पुरिमड्ढ़ तप और आगाढ़ कारण से एकासणा तप प्रायश्चित् तप आता है ।