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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[८९-९०] साधु को अवग्रहानंतक (गुप्तांग आवरक वस्त्र और अवग्रह पट्टक) अवग्रहानंतक आवरण वस्त्र रखना या इस्तेमाल करना न कल्पे, साध्वी को कल्पे ।
[९१] गृहस्थ के घर आहार लेने गए हुए साध्वी को यदि वस्त्र की आवश्यकता हो तो यह वस्त्र मैं अपने लिए लेती हूँ ऐसा स्वनिश्रा से वस्त्र लेना न कल्पे । लेकिन प्रवर्तिनी की निश्रा में लेना कल्पे (यानि प्रवर्तिनी आज्ञा न दे तो वस्त्र परत करना) । यदि प्रवर्तिनी विद्यमान न हो तो वहाँ विद्यमान ऐसे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक या जो गीतार्थ हो उसकी निश्रा में वस्त्र लेना कल्पे ।
[९२-९३] पहली बार प्रवजित होनेवाले साधु को रजोहरण गुच्छा, पात्र और तीन अखंड़ वस्त्र, (साध्वी को चार अखंड़ वस्त्र) अपने साथ ले जाकर प्रवजित होना कल्पे, यदि पहले प्रवजित हुए हो तो न कल्पे लेकिन यथा परिगृहित वस्त्र लेकर आत्मभाव से प्रवजित होना कल्पे । (यहाँ दीक्षा-बड़ी दीक्षा के अनुसंधान से समजना)
९४] साधु-साध्वी को प्रथम समवसरण यानि वर्षावास में वस्त्र ग्रहण करना न कल्पे, लेकिन दुसरे समवसरण यानि वर्षावास-चातुर्मास के बाद कल्पे ।
[९५-९९] साधु-साध्वी को चारित्र-पर्याय के क्रम में वस्त्र शय्या-संथारा ग्रहण करना और वंदन करना कल्पे ।
[९८-१००] साधु-साध्वी को गृहस्थ के घर में या दो घर के बीच खड़ा रहना, बैठना, खड़े-खड़े कार्योत्सर्ग करना, चार-पाँच गाथा का उच्चारण, पदच्छेद, सूत्रार्थकथन, फलकथन करना, पाँच महाव्रत के उच्चारण, आदि करना न कल्पे । (शायद किसी उत्कट जिज्ञासावाले हो तो) केवल एक दृष्टांत, एक प्रश्नोत्तर, एक गाथा या एक श्लोक का एक स्थान पर स्थिर रहकर उच्चारण आदि करना कल्पे ।
[१०१-१०२] साधु-साध्वी को सागारिक के शय्या-संस्तारक जो ग्रहण किए हो वो काम पूरा होने पर "अविकरण" (जिस तरह से लिया हो उसी तरह परत न करना) रखकर गमन करना न कल्पे, “विकरण" (उसी रूप में परत) करके गमन करना कल्पे ।
[१०३] साधु-साध्वी को प्रातिहारिक (परत करने को योग्य) या सागारिक (शय्यातर) के शय्यासंथारा यदि गुम हो जाए तो उसे ढूँढना चाहिए, यदि मिल जाए तो जिसका हो उसे परत करना चाहिए, यदि न मिले तो फिर से आज्ञा लेकर दुसरा शय्या-संथारा ग्रहण करके इस्तेमाल करना चाहिए ।
[१०४] जिस दिन श्रमण-साधु, शय्या-संथारा छोड़कर विहार करे उसी दिन से या तब दुसरे श्रमण-साधु आ जाए तो पूर्व गृहित आज्ञा में शय्या संथारा ग्रहण कर शकते है । क्योंकि अवग्रह गीले हाथ की रेखा सूख जाए तब तक होता है ।
[१०५] यदि उस उपाश्रय में साधु-साध्वी जरुरी अचित्त चीज भूल गए या छोड़ गए हो (नए आनेवाले साधु-साध्वी) पूर्वगृहीत आज्ञा से ग्रहण कर शकते है क्योंकि अवग्रह गीले हाथ की रेखा सूख जाए तब तक होता है ।
[१०६-१०७] जो घर इस्तेमाल में न लिया जा रहा हो , अनेक स्वामी में से किसी एक स्वामी ने खुद के आधिन न किया हो, किसी व्यक्ति के द्वारा परिगृहित न हो या किसी यक्ष-देव आदि ने वहाँ निवास किया हो उस घर का पहला जो मालिक हो उसकी आज्ञा लेकर