________________
बृहत्कल्प - ४/१३१
[१३१-१३३] यदि कोई साधु, गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय दुसंग गण के आचार्य या उपाध्याय का गुरु भाव से स्वीकार करना चाहे तो जो पदस्थ है उन्हें अपने पद का त्याग करना और भिक्षु आदि सबको आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा लेनी चाहिए। यदि आज्ञा मांगे लेकिन आज्ञा न मिले तो अन्य आचार्य उपाध्याय का गुरु भाव से स्वीकार
कल्पे । यदि आज्ञा दे तो कल्पे । स्वगण के आचार्य-उपाध्याय को कारण बताए बिना अन्य आचार्य - उपाध्याय का गुरुभाव से स्वीकार करना न कल्पे लेकिन कारण बताकर कल्पे | [१३४] यदि कोई साधु रात को या विकाल संध्या के वक्त मर जाए तो उस मृत भिक्षु के शरीर को किसी वैयावच्च करनेवाले साधु एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश से परठने के लिए चाहे तब यदि वहाँ उपयोग में आ शके वैसा गृहस्थ का अचित्त उपकरण हो तो वो उपकरण गृहस्थ का ही है ऐसा मानकर ग्रहण करे । उससे उस मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश में परठवे । उसके बाद उस उपकरण को यथास्थान रख दो ।
११७
[१३५] यदि कोई साधु कलह करके उस कलह को उपशान्त न करे तो उसे गृहस्थ के घर में भक्त-पान के लिए प्रदेश - निष्क्रमण करना स्वाध्याय, भूमि या मल-मूत्र त्याग भूमि में प्रवेश करना, एक गाँव से दूसरे गाँव जाना, एक गण से दुसरे गण में जाना, वर्षावास रहना न कल्पे जहाँ वो अपने बहुश्रुत या बहु आगमज्ञ आचार्य या उपाध्याय को देखे वहाँ उनके पास आलोचना-प्रतिक्रमण, निंदा-गर्हा करे, पाप से निवृत्त हो, पाप फल से शुद्ध हो, पुनः पापकर्म न करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो, यथायोग्य तपकर्म प्रायश्चित् स्वीकार करे, लेकिन वो प्रायश्चित् श्रुतानुसार दिया गया हो तो उसे ग्रहण करना लेकिन श्रुतानुसार न दिया हो तो ग्रहण न करना । यदि वो कलह करनेवाला श्रुतानुसार प्रस्थापित प्रायश्चित् स्वीकार न करे तो उसे गण से बाहर नीकाल देना ।
[१३६ ] जिस दिन परिहारतप स्वीकार किया हो उस दिन परिहार कल्प में रहनेवाले भिक्षु को एक घर से विपुल सुपाच्य आहार दिलाना आचार्य - उपाध्याय को कल्पे उसके बाद उसे अशन आदि आहार एक बार या बार-बार देना न कल्पे । लेकिन उसे खड़ा करना, बिठाना, बगल बदलना, उसके मल-मूत्र, कफ परठना, मल-मूत्र लिप्त उपकरण को शुद्ध करना आदि में से किसी एक तरह की वैयावच्च करना कल्पे । यदि आचार्य उपाध्याय ऐसा जाने कि यह ग्लान, भूखे प्यासे तपस्वी दुबले और थककर गमनागमन रहित मार्ग में मूर्छित होकर गिर जाएंगे तो उसे अशन आदि आहार एक बार या बार-बार देना कल्पे ।
[१३७ - १३८] गंगा, जमुना, सरयू, कोशिका, मही यह पाँच महा नदी समुद्रगामिनी है, प्रधान है, प्रसिद्ध है । यह नदियाँ एक महिने में एक या दो बार उतरना या नाँव से पार करना साधु-साध्वी को न कल्पे, शायद ऐसा मालूम हो कि कुणाला नगरी के पास ऐरावती नदी एक पाँव पानी में और एक पाँव भूमि पर रखकर पार की जा शकते है तो एक महिने में दो या तीन बार भी पार करना कल्पे यदि वो मुमकीन न हो तो एक महिने में दो या तीन बार उतरना या नाँव में पार करना न कल्पे ।
[१३९ - १४२] जो उपाश्रय सूखा घास और घास के ढ़ंग, चावल आदि का भूँसा और उसके ढ़ग, पाँच वर्णीय लील-फूल, अंड़, बीज, कीचड़, मकड़ी की जाल रहित हो लेकिन उपाश्रय की छत की ऊँचाई कान से भी नीची हो तो ऐसे उपाश्रय में साधु-साध्वी को शर्दी