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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान आता है ।
[१२१-१२२] साधु-साध्वी ने अशन आदि आहार प्रथम पोरिसी यानि कि प्रहर में ग्रहण किया है और अन्तिम पोरिसि तक का काल या दो कोश की हद से ज्यादा दूर के क्षेत्र तक अपने पास रखे या इस काल और क्षेत्र हद का उल्लंघन तक वो आहार रह जाए तो वो आहार खुद न खाए, अन्य साधु-साध्वी को न दे, लेकिन एकान्त में सर्वथा अचित्त स्थान पर परठवे । यदि ऐसा न करते हुए खुद खाए या दुसरे साधु-साध्वी को दे तो लघुचौमासी प्रायश्चित् के भागी होते है ।
[१२३] आहार के लिए गृहस्थ के गृह समुदाय में प्रवेश करके निर्ग्रन्थ को उद्गम उत्पादन और एषणा दोष में से किसी एक दोषयुक्त अनेषणीय अन्न-पान ग्रहण कर लिया हो तो वो आहार उसी वक्त " उपस्थापना न की गई हो ऐसे" शिष्य को दे देना या एषणीय आहार देने के बाद देना कल्पे । यदि कोई अनुपस्थापित शिष्य न हो तो वो अनेषणीय आहार खुद न खाए, दुसरों को न दे, लेकिन एकान्त ऐसे अचित्त स्थान में प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके पठना चाहिए ।
[१२४] जो अशन आदि आहार कल्पस्थित ( अचेलक आदि दश तरह के कल्प में स्थित प्रथम चरम जिन शासन के साधु ) के लिए बनाया हो तो अकल्पस्थित (अचेलक आदि कल्प में स्थित नहीं है ऐसे मध्य के बाईस जिनशासन के साधु) को कल्पे ।
[१२५] यदि कोई भिक्षु स्वगण में से नीकलकर अन्य गण का स्वीकार करना चाहे तो आचार्य उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणि, गणधर या गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण का स्वीकार करना न कल्पे लेकिन आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्य गण का स्वीकार कल्पे । यदि वो आज्ञा दे तो अन्य गण का स्वीकार कल्पे । और यदि आज्ञा न दे तो अन्य गण का स्वीकार करना न कल्पे ।
[१२६] यदि गणावच्छेदक स्वगण में से नीकलकर अन्य गण का स्वीकार करना चाहे तो पहले अपना पद छोड़कर अन्य गण का स्वीकार करना कल्पे, आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण का स्वीकार करना न कल्पे लेकिन यदि पूछकर आज्ञा दे तो कल्पे और आज्ञा न दे तो न कल्पे ।
[१२७] यदि आचार्य या उपाध्याय शायद अपने गण में से नीकलकर दुसरे गण में जाना चाहे तो उनको अपना पद त्याग करके दुसरे गण में जाना कल्पे । (जिन्हें अपना पद भार सौंपा हो ऐसे) आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण का स्वीकार करना कल्पे पूछने के बाद आज्ञा मिले तो अन्यगण में जाना कल्पे और आज्ञा न मिले तो जाना न कल्पे ।
[१२८ - १३०] यदि कोई साधु-गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय अपने गण से नीकलकर दुसरे गण के साथ मांडली व्यवहार करना चाहे तो यदि पद स्थान पर हो तो अपने पद का त्याग करना और सभी आचार्य यावत् गणावच्छेदक की आज्ञा लिए बिना न कल्पे यदि आज्ञा मांगे और आचार्य आदि से उन्हें आज्ञा मिले तो अन्य गण के साथ मांडली व्यवहार कल्पे, यदि आज्ञा न मिले तो न कल्पे अन्य गण में उत्कृष्ट धार्मिक शिक्षा आदि प्राप्त न होने से न कल्पे ।