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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद से दी गई स्वाध्याय, वांचना ग्रहण करे, स्वाध्याय की परावर्तना करे, इसमें से कोई भी कार्य खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३२५-३२६] जो साधु-साध्वी अपनी संघाटिका यानि कि ओढ़ने का वस्त्र, जिसे कपड़ा कहते है वो - परतीर्थिक, गृहस्थ या श्रावक के पास सीलाई करवाए, उस कपड़े को दीर्घ सूत्री करे, मतलब शोभा आदि के लिए लम्बा धागा डलवाए, दुसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३२७] जो साधु-साध्वी नीम के, परवर के या बिली के पान को अचित्त किए हुए ठंड़े या गर्म पानी में धोकर पीसकर खाए, खिलाए या खानेवाले की अनुमोदना करे ।
[३२८-३३५] जो साधु-साध्वी प्रातिहाकि का (शय्यातर आदि के पास से वापस देने का कहकर लाया गया प्रातिहारिक), सागरिक (अन्य किसी गृहस्थ) का पाद प्रोंछनक अर्थात् रजोहरण, दंड, लकड़ी पाँव में लगा कीचड़ ऊखेड़ने की शलाखा विशेष या वांस की शलाखा, उसी रात को या अगली सुबह को वापस कर दूँगा ऐसा कहकर लाने के बाद निर्दिष्ट वक्त पर वापस न करे यानि कि शाम के बजाय सुबह दे या सुबह के बजाय शाम को दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३३६-३३८] जो साधु-साध्वी प्रातिहारिक (शय्यात्तर), सागरिक (अन्य किसी गृहस्थ, या दोनों की शय्या, संथारा वापस देने के बाद वो शय्या, संथारा दुसरी बार आज्ञा लिए बिना (याचना किए सिवा) इस्तेमाल करे यानि खुद उपभोग करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३३९] जो साधु-साध्वी शण-ऊनी, पोंड़ या अमिल के धागे बनाए । (किसी वस्त्र आदि के अन्तिम हिस्से में रहे धागे को लम्बा करे, शोभा बढ़ाने के लिए बुने, दुसरे के पास वैसा करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे ।
___ [३४०-३४८] जो साधु-साध्वी सचित्त, रंगीन, कईं रंग से आकर्षक, ऐसे सीसम की लकड़ी का, वांसा का या नेतर का बनाए, धारण करे, उपभोग करे, यह कार्य करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३४९-३५०] जो साधु-साध्वी नए बँसे हुए गाँव, नगर, खेड़, कब्बड़, मंडल, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम, घर, निगम, शहर, राजधानी या संनिवेश में, लोहा, ताम्र, जसत, सीसुं, चाँदी, सोना, रत्न की खान में, प्रवेश करके अशन-पान-खादिम-स्वादिम ग्रहण करेकरवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
नए गाँव आदि में साधु-साध्वी प्रवेश करे तब लोग मंगलभूत माने भाव उल्लास बढ़े तो निमित्त आदि दोषयुक्त आहार तैयार करे, अमंगल माने वहाँ निवास करे तो अंतराय हो।
और फिर नई बस्ती में सचित्त पृथ्वी, अपकाय, वनस्पतिकाय आदि विराधना की संभावना रहे, खान आदि सचित्त हो इसलिए संयम की और गिरने से आत्मविराधना मुमकीन हो ।
[३५१-३७४] जो साधु-साध्वी मुख, दाँत, होठ, नाक, बगल, हाथ, नाखून, पान, पुष्प, फल, बीज, हरीत वनस्पति से वीणा बनाए यानि कि वैसा आकार करे, मुख आदि से वीणा जैसे शब्द करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।।
[३७५-३७७] जो साधु-साध्वी औदेशिक (साधु के निमित्त से बनी) सप्राभृतिक