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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उतना ही प्रायश्चित् और सशल्य आलोचना करे तो एक-एक मास ज्यादा प्रायश्चित् परंतु छ मास से ज्यादा प्रायश्चित् कभी नहीं आता ।
[१३८२-१३८३] जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार चौमासी या सातिरेक चौमासी (यानि कि चौमासी से कुछ ज्यादा) पंचमासी या साधिक पंचमासी इस परिहार (यानि पाप) स्थान को दुसरे ऐसे तरह के पाप स्थान का सेवन करके या आलोचना करे तो शल्यरहित आलोचना में उतना ही प्रायश्चित् और शल्यसहित आलोचना में एक मास ज्यादा लेकिन छ मास से ज्यादा प्रायश्चित् नहीं आता ।।
[१३८४-१३८७] जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार चौमासी या साधिक चौमासी, पंचमासी या साधिक पंचमासी इस परिहार यानि पापस्थान में से अन्य किसी भी पाप स्थान का सेवन करके निष्कपट भाव से या कपट भाव से आलोचना करे तो क्या ? उसकी विधि बताते है जैसे कि परिहारस्थान पाप का प्रायश्चित् तप कर रहे साधु की सहाय आदि के लिए पारिहारिक को अनुकूलवर्ती किसी साधु नियत किया जाए, उसे इस परिहार तपसी की वैयावच्च करने के लिए स्थापना करने के बाद भी किसी पाप-स्थान का सेवन करे और फिर कहे कि मैंने कुछ पाप किया है तब तमाम पहले सेवन किया गया प्रायश्चित् फिर से सेवन करना चाहिए ।
(यहाँ पाप स्थानक को पूर्व पश्चात् सेवन के विषय में चतुर्भगी है ।) १. पहले सेवन किए गए पाप की पहले आलोचना की, २. पहले सेवन किए गए पाप की बाद में आलोचना कर, ३. बाद में सेवन किए पाप की पहले आलोचना करे, ४. बाद में सेवन किए गए पाप की बाद में आलोचना करे । (पाप आलोचना क्रम कहने के बाद परिहार सेवन, करनेवाले के भाव को आश्रित करके चतुर्भंगी बताता है ।) १. संकल्प काल और आलोचना के वक्त निष्कपट भाव, ३. संकल्पकाल में कपटभाव परंतु आलोचना लेते वक्त निष्कपट भाव, ४. संकल्पकाल और आलोचना दोनों वक्त कपट भाव हो ।
यहाँ संकल्प काल और आलोचना दोनों वक्त बिना छल से और जिसे क्रम में पाप का सेवन किया हो उस क्रम में आलोचना करनेवाले को अपने सारे अपराध इकट्ठे होकर उन्हें फिर से उसी प्रायश्चित् में स्थापन करना जिसमें पहले स्थापन किए गए हो यानि उस परिहार तपसी उन्हें दिए गए प्रायश्चित् को फिर से उसी क्रम में करने को कहे ।
[१३८८-१३९३] छ, पाँच, चार, तीन, दो, एक परिहार स्थान यानि पाप स्थान का प्रायश्चित् कर रहे साधु (साध्वी) के बीच यानि प्रायश्चित् वहन शुरु करने के बाद दो मास जिसका प्रायश्चित् आए ऐसे पाप स्थान का फिर से सेवन करे और यदि उस गुरु के पास उस पाप कर्म की आलोचना की जाए तो दो मास से अतिरिक्त दुसरी २० रात का प्रायश्चित् बढ़ता है । यानि कि दो महिने और २० रात का प्रायश्चित् आता है ।
____एक से यावत् छ महिने का प्रायश्चित् वहन वक्त की आदि मध्य या अन्त में किसी प्रयोजन विशेष से, सामान्य या विशेष आशय और कारण से भी यदि पाप-आचरण हुआ हो तो भी अ-न्युनाधिक २ मास २० रात का ज्यादा प्रायश्चित् करना पड़ता है ।
[१३९४] दो महिने और वीस गत का परिहार स्थान प्रायश्चित् वहन कर रहे साधु को आरम्भ से - मध्य में या अन्त में फिरसे भी बीच में कभी-कभी दो मास तक प्रायश्चित् पूर्ण