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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[१४०] जो मुनि बाईस परिषह और दुःसह ऐसे उपसर्ग को शून्य स्थान या गाँव नगर आदि में सहन करता है, वो मरणकाल में समाधि में भी झैल शकता है ।
[१४१] धन्य पुरुष के कषाय दुसरों के क्रोधादिक कषाय से टकराने के बावजूद भी - अच्छी तरह से बैठे हुए पंगु मानव की तरह खड़े होने की इच्छा नहीं रखते ।
[१४२] श्रमणधर्म का आचरण करनेवाले साधु को यदि कषाय उच्च कोटि के हो तो उनका श्रमणत्व शेलड़ी के फूल की तरह निष्फल है, ऐसा मेरा मानना है ।
[१४३] कुछ न्यून पूर्व कोटि साल तक पालन किया गया निर्मल चारित्र भी कषाय से कलूषित चित्तवाला पुरुष एक मुहूर्त में हार जाता है ।
[१४४] अनन्तकाल से प्रमाद के दोष द्वारा उपार्जन किए कर्म को, राग-द्वेष को परास्त करनेवाले - खत्म कर देनेवाले मुनि केवल कोटि पूर्व साल में ही खपा देते है ।
[१४५] यदि उपशान्त कषायवाला - उपशम श्रेणी में आरूढ़ हुआ योगी भी अनन्त बार पतन पाता है । तो बाकी रहे थोड़े कषाय का भरोसां क्यों किया जाए ?
[१४६] यदि क्रोधादि कषाय का क्षय हुआ हो तो ही खुद को क्षेम-कुशल है, उस तरह जैसे, अगर कषाय जीते हो तो सच्चा जय जाने, यदि कषाय हत-प्रहत हुए हो तो अभय प्राप्त हुआ ऐसा माने एवं कषाय सर्वथा नष्ट हुए हो तो अविनाशी सुख अवश्य मिलेगा ऐसा जाने ।
[१४७] धन्य है उन साधुभगवंतो को जो हमेशा जिनवचनमें रक्त रहते है, कषायो का जय करते है, बाह्य वस्तु प्रति जिनको राग नहीं है तथा निःसंग, निर्ममत्व बनकर यथेच्छ रूप से संयममार्ग में विचरते है ।
[१४८] मोक्षमार्ग में लीन बने जो महामुनि, अविरहित गुणो से युक्त होकर इसलोक या परलोक में तथा जीवन या मृत्यु में प्रतिबन्ध रहित होकर विचरते है, वे धन्य है ।
[१४९] बुद्धिमान पुरुष को मरणसमुद्घात के अवसर पर मिथ्यात्व का वमन करके सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए ।
__ [१५०-१५१] खेद की बात है कि महान् धीर पुरुष भी बलवान् मृत्यु के समय मरण समुद्घात की तीव्र वेदना से व्याकुल होकर मिथ्यात्व दशा पाते है । इसीलिए बुद्धिमान् मुनि को गुरु के समीप दीक्षा के दिन से हुए सर्व पापो को याद करके उसकी आलोचना, निंदा, गर्दा करके पाप की शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए ।
[१५२] उस वक्त गुरु भगवंत जो उचित प्रायश्चित देवे, उसका इच्छापूर्वक स्वीकार करके तथा गुरु का अनुग्रह मानते हुए कहे कि हे भगवन् ! मैं आपके द्वारा दिया गया प्रायश्चित-तप करना चाहता हुं, आपने मुझे पाप से निकालकर भवसमुद्र पार करवाया है ।
[१५३] परमार्थ से मुनि को अपराध करना ही नहीं चाहिए, प्रमादवश हो जाए तो उसका प्रायश्चित अवश्य करना चाहिए ।
[१५४] प्रमाद की बहुलतावाले जीव को विशुद्धि प्रायश्चित से ही हो शकती है, चारित्र की रक्षा के लिए उसके अंकुश समान प्रायश्चित्त का आचरण करना चाहिए ।
[१५५] शल्यवाले जीव की कभी शुद्धि नहीं होती, ऐसा सर्वभावदर्शी जिनेश्वरने कहा है । पाप की आलोचना, निंदा करनेवाले मरण और पुनः भव रहित होते है ।